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२. वैनयिकी बुद्धि का लक्षण
मूलम् - १. भरनित्थरण समत्था, तिवग्ग - सुत्तत्थ - गहिय-पेयाला । उभओ लोग फलवई, विणयसमुत्था हवइ बुद्धी ॥ ७३ ॥
छाया - १. भरनिस्तरणसमर्था, त्रिवर्ग - सूत्रार्थ - गृहीत- पेयाला । उभय-लोकफलवती विनयसमुत्था भवति बुद्धिः ॥ ७३ ॥
पदार्थ-विणय-विनय से, समुत्था - समुत्पन्न, बुद्धी - बुद्धि, भर - भार, नित्थरण - निर्वाह करने, समत्था-समर्थ है, तिवग्ग-त्रिवर्ग का वर्णन करने वाले, सुत्तत्थ - सूत्र और अर्थ का, पेयाला - प्रधान सार, गहिय-ग्रहण करने वाली, उभओ-लोग दोनों लोक में, फलवईफलवती, भवइ - होती है।
भावार्थ - विनय से पैदा हुई बुद्धि कार्य भार के निस्तरण - वहन करने में समर्थ होती है। त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ, काम का प्रतिपादन करने वाले सूत्र तथा अर्थ का प्रमाण- सार ग्रहण करने वाली है तथा यह विनय से उत्पन्न बुद्धि इस लोक और परलोक में फल देने वाली होती है।
२. वैनयिकी बुद्धि के उदाहरण
मूलम् - २. निमित्ते' - अत्थसत्थे अ, लेहे गणिए' अ ' अस्य । गद्दभ' - लक्खण' गंठी', अगए" रहिए" य गणिया २ य ॥ ७४ ॥ ३. सीआ साडी दीहं च तणं, अवसव्वयं च कुंचस्स १३ । निव्वोदए १४ य गोणे, घोडग पडणं च रुक्खाओ " ॥ ७५ ॥ छाया-२. निमित्ते'- अर्थशास्त्रे' च, लेखेर गणिते', च' कूपाश्वौ च। गर्दभ' - लक्षण - ग्रन्थ्य' - गदाः, रथिकश्च गणिका २ च ॥ ७४ ॥ ३. शीता शाटी दीर्घञ्च तृणम्, अपसव्यञ्च क्रोञ्चस्य १३ । नीव्रोदक १४ च गौ, घोटक - ( मरणं) पतनञ्च वृक्षात् " ॥ ७५ ॥
१. निमित्त-किसी नगर में एक सिद्धपुत्र रहता था। उसके दो शिष्य थे। सिद्धपुत्र ने उन दोनों को समान रूप से निमित्त शास्त्र का अध्ययन कराया। एक शिष्य बहुमान पूर्वक गुरु की आज्ञा का पालन करता, गुरु जिस प्रकार भी उसे आज्ञा देते, वह उसी प्रकार स्वीकार कर
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ता और अपने मन में निरन्तर मनन-चिन्तन करता रहता था । विमर्श करते समय यत्किंचित् सन्देह उत्पन्न होने पर गुरुचरणों में उपस्थित होकर, विनययुत शिर नमाकर, वन्दन करके सम्मानपूर्वक अपनी शंका का समाधान करता । इस तरह निरन्तर विचार करते रहने से निमित्त शास्त्र का अभ्यास करते-करते उसे तीक्ष्ण बुद्धि उत्पन्न हो गई। परन्तु दूसरे शिष्य की सभी
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