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________________ २६. इच्छामहं-(जो तुम चाहो वह देना)-एक सेठ की मृत्यु हो गई। उसकी स्त्री सेठ के द्वारा ब्याज आदि पर दिये गये रुपये को प्राप्त नहीं कर पाती थी। तब स्त्री ने अपने पति के मित्र को बुलाया और कहा-"जिन लोगों के पास मेरे पति ने रुपये ब्याज पर दिये हैं, उनसे उग्राही कर के मुझे दिला दो।" पति के मित्र ने कहा कि-"यदि तुम मुझे भी उस में से भाग दो तो दिला दूंगा।" तब स्त्री ने कहा "जो तू चाहता है, वह मुझे दे देना।" पश्चात् उस मित्र ने लोगों से सारा रुपया वसूल कर लिया। सारा रुपया लेने के पश्चात् स्त्री को थोड़ा देने और स्वयं अधिक लेने की उसकी भावना हुई । स्त्री ने कहा-"मैं थोड़ा भाग नहीं लूंगी।" अधिक वह नहीं देता था। यह झगड़ा न्यायालय में चला गया। न्यायकारी पुरुषों की आज्ञा से सारा धन वहां मंगवाया गया। उसके दो छोटे और बड़े भाग करके रख दिये। न्यायकारी पुरुषों ने मित्र से पूछा-"तू किस भाग को चाहता है?" उस ने कहा- 'मैं बड़े भाग को चाहता हूं।" तब न्यायाधीश ने स्त्री के कहे हुए शब्दों का अर्थ विचारा कि-"जो तू चाहता है, वह मुझे देना।" न्यायाधीश ने कहा-"तुम बड़े भाग को चाहते हो, इसलिये बड़ा भाग इस स्त्री को दो और दूसरा तुम ले लो।" इस प्रकार झगड़ा निपटाने में कारणिकों की औत्पत्तिकी बुद्धि का उदाहरण है। २७. शतसहस्र-(लाख) एक परिव्राजक था। उसके पास चान्दी का बहुत बड़ा पात्र था, जिस का नाम परिव्राजक ने 'खोरक' रखा हुआ था। परिव्राजक जिस बात को एक बार सुन लेता था, अपनी कुशाग्र बुद्धि से उसे अक्षरशः स्मरण कर लेता था। अपनी प्रज्ञा के अभिमान से सर्वजनों के सामने उसने प्रतिज्ञा की कि-"जो व्यक्ति मुझे अश्रुतपूर्व अर्थात् पहले न सुनी हुई बात सुनायेगा, मैं उसे यह चान्दी का पात्र दे दूंगा।" यह प्रतिज्ञा सुनकर चान्दी के पात्र के लोभ से कई व्यक्ति आए। परन्तु कोई भी ऐसी बात न सुना सका। आगन्तुक जो भी बात सुनाता, परिव्राजक अक्षरशः अनुवाद करके उसी समय सुना देता और कह देता कि-"यह बात मैंने सुन रखी है अन्यथा मैं कैसे सुनाता।" इस कारण उसकी प्रसिद्धि सर्वत्र फैल गई। _ यह वृत्तान्त किसी सिद्धपुत्र ने सुना और कहा कि-"मैं ऐसी बात कहूंगा जो परिव्राजक ने न सुनी हो।" सब लोगों के सामने राजसभा में यह प्रतिज्ञा हो गयी। तब सिद्धपुत्र ने यह पाठ पढ़ा- . "तुज्झ पिया मह पिउणो, धारेइ अणूणगं सयसहस्सं । जइ सुयपुव्वं दिज्जउ, अह न सुयं खोरयं देसु ॥" अर्थात्-"तेरे पिता ने मेरे पिता के एक लाख रुपये देने हैं। यदि यह बात तुमने सुनी है, तो अपने पिता का एक लाख रुपये का कर्ज चुका दो, यदि नहीं सुनी है तो मुझे अपनी प्रतिज्ञा अनुसार खोरक-चान्दी का पात्र दे दो।" यह सुनकर परिव्राजक को अपनी पराजय माननी पड़ी और चांदी का पात्र सिद्धपुत्र को प्रतिज्ञा के अनुसार देना पड़ा। यह सिद्धपुत्र की औत्पत्तिकी बुद्धि का उदाहरण हुआ। *321
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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