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बुद्धी चउब्विहा वुत्ता पंचमा नोवलब्भइ अर्थात् बुद्धि चार प्रकार की ही है, पांचवीं बुद्धि कहीं पर भी उपलब्ध नहीं होती।
१. औत्पत्तिकी बुद्धि का लक्षण मूलम्-१. पुव्व-मदिट्ठ-मस्सुय-मवेइय, तक्खणविसुद्धगहियत्था ।
अव्वाहय-फलजोगा, बुद्धी उप्पत्तिया नाम ॥ ६९ ॥ छाया-१. पूर्व-मदृष्टाऽश्रुतऽवेदित-तत्क्षण-विशुद्धगृहीतार्था ।
अव्याहतफलयोगा, बुद्धिरौत्पत्तिकी नाम ॥ ६९ ॥ पदार्थ-पुव्व-मदिट्ठ-मस्सुय-मवेइय पहले बिना देखे, बिना सुने और बिना जानेतक्खण-तत्काल ही, विसुद्धगहियत्था-पदार्थों के विशुद्ध अर्थ-अभिप्राय को ग्रहण करने वाली, और जिसके द्वारा; अव्वाहय-फल जोगा-अव्याहत फल-बाधा रहित परिणाम का योग होता है, बृद्धि-ऐसी बुद्धि, उप्पत्तिया नाम-औत्पत्तिकी बुद्धि कही जाती है।
भावार्थ-जिस बुद्धि के द्वारा पहले बिना देखे सुने और बिना जाने ही पदार्थों के विशुद्ध अर्थ-अभिप्राय को तत्काल ही ग्रहण कर लिया जाता है और जिस से अव्याहत-फलबाधारहित परिणाम का योग होता है, उसे औत्पत्तिकी बुद्धि कहा गया है।
१. औत्पत्तिकी बुद्धि के उदाहरण मूलम्-२ भरह-सिल-मिंढ-कुक्कडतिल-बालुय-हत्थि-अगड-वणसंडे।
पायस-अइआ-पत्ते, खाडहिला-पंचपियरो य ॥ ७० ॥ ३. भरह-सिल पणिय रुक्खे, खुड्डग पड सरड काय उच्चारे । ... गय घयण गोल खम्भे, खुड्डग-मग्गि त्थि पइ पुत्ते ॥ ७१ ॥ ४. महुसित्थ मुद्दि अंके (य), नाणए भिक्खु चेडगनिहाणे ।
सिक्खा य अत्थसत्थे, इच्छा य महं सयसहस्से ॥ ७२ ॥ छाया-२. भरत-शिला-मेंढ-कुक्कुट, तिल-वालुका-हस्त्यगड-वनखण्डाः ।
पायसाऽतिग - पत्राणि, खाडहिला - पञ्चपितरश्च ॥ ७० ॥ ३. भरत-शिला-पणित-वृक्षाः, क्षुल्लक-पट-सरट-काकोच्चाराः । गज-घयण-(भाण्ड)गोलकस्तम्भाः, क्षुल्लक-मार्ग-स्त्री-पति-पुत्राः॥७१॥
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