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१. औत्पत्तिकी-तथाविध क्षयोपशम भाव के कारण और शास्त्र अभ्यास के बिना जिसकी उत्पत्ति हो, उसे औत्पत्तिकी बुद्धि कहते हैं।
२. वैनयिकी-गुरु आदि की भक्ति से उत्पन्न वैनयिकी बुद्धि कही गयी है। ३. कर्मजा-शिल्पादि के अभ्यास से उत्पन्न बुद्धि कर्मजा है। . ..
४. पारिणामिकी-चिरकाल तक पूर्वापर पर्यालोचन से जो बुद्धि पैदा होती है, उसे पारिणामिकी बुद्धि कहते हैं।
ये चार प्रकार की ही बुद्धियां शास्त्रकारों ने वर्णित की हैं, पांचवाँ भेद उपलब्ध नहीं होता। ॥ सूत्र २६ ॥
टीका-इस सूत्र में आभिनिबोधिक ज्ञान को दो हिस्सों में विभक्त किया है, एक श्रुतनिश्रित और दूसरा अश्रुतनिश्रित। जो श्रुतज्ञान से सम्बन्धित मतिज्ञान है, उसे श्रुतनिश्रित कहते हैं और जो तथाविध क्षयोपशम भाव से उत्पन्न हो, उसे अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान कहते हैं। इस विषय में भाष्यकार लिखते हैं
"पुव्वं सुअपरिकम्मियमइस्स, जं सपयं सुयाईयं ।
तन्निस्सियमियरं पुण, अणिस्सियं मइचउक्कं तं ॥" यद्यपि पहले श्रुतनिश्रित मति का वर्णन करना चाहिए था, फिर भी सूचीकटाह न्याय से अश्रुतनिश्रत का वर्णन अल्पतर होने से सूत्रकार ने पहले उसी के चार भेद वर्णन किए हैं, जैसे कि
(1) औत्पत्तिकी (हाजर जवाबी बुद्धि) जिसका क्षयोपशम इतना श्रेष्ठ है, जिसमें ऐसी अच्छी युक्ति सूझती है कि जिससे प्रश्नकार निरुत्तर हो जाए, जनता पर अच्छा प्रभाव पड़े, राजसम्मान मिले, हेलया आजीविका भी मिल जाए और बुद्धिमानों का पूज्य बन जाए। ऐसी बुद्धि को औत्पत्तिकी कहते हैं। ___(2) वैनयिकी-माता-पिता, गुरु-आचार्य आदि की विनय-भक्ति करने से उत्पन्न होने वाली बुद्धि को वैनयिकी कहते हैं।
(3) कर्मजा शिल्प-दस्तकारी-हुनर, कला, विविध प्रकार के कर्म करने से जो तद्विषयक नई सूझ-बूझ होती है, वह कर्मजा बुद्धि कहलाती है।
(4) पारिणामिकी-जैसे-जैसे आयु परिणमन होती है तथा पूर्वापर पर्यालोचन के द्वारा बोध प्राप्त होता है, ऐसी पवित्र एवं परिपक्व बुद्धि को पारिणामिकी कहते हैं।
तीर्थंकर तथा गणधरों ने उक्त चार प्रकार की अश्रुतनिश्रित बुद्धि बताई हैं। पाँचवीं बुद्धि केवलियों के ज्ञान में भी अनुपलब्ध ही है। सर्व अश्रुतनिश्रित मति का उक्त चारों में ही अन्तर्भाव हो जाता है। इसी कारण सूत्रकर्ता ने भी कथन किया है, कि
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