________________
करने योग्य होते हैं, उन्हें तीर्थंकर देव अपने प्रवचनों में प्रतिपादन करते हैं, वही वचन योग होता है अर्थात् वह द्रव्यश्रुत है, शेष श्रुत अप्रधान होता है।
इस प्रकार यह केवलज्ञान का विषय सम्पूर्ण हुआ और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष तथा प्रत्यक्षज्ञान का प्रकरण भी समाप्त हुआ ॥ सूत्र २३ ॥
टीका-इस गाथा में सूत्रकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि तीर्थंकर भगवान केवलज्ञान द्वारा पदार्थों को जानकर जो उनमें कथनीय हैं, उन्हीं का प्रतिपादन करते हैं। सभी पदार्थों का वर्णन करना उनकी शक्ति से भी बाहर है। क्योंकि आयुष्य परिमित है, जिह्वा एक है और पदार्थ अनन्त-अनन्त हैं। जिन पदार्थों का वर्णन उनसे किया जा सकता है, वह प्रत्यक्ष किए हुए में से अनन्तवां भाग है। भवस्थ केवलज्ञान की पर्याय में रहकर जितने पदार्थों को वे कह सकते हैं, वे अभिलाप्य हैं, शेष अनभिलाप्य। यावन्मात्र प्रज्ञापनीय-कथनीय भाव हैं, वे अनभिलाप्य के अनन्तवें भाग परिमाण हैं, किन्तु जो श्रुतनिबद्ध भाव हैं, वे प्रज्ञापनीय भावों के भी अनन्तवें भाग परिमाण हैं, जैसे कहा भी है
"पण्णवणिज्जा भावा, अणंतभागो तु अणभिलप्पाणं ।
पण्णवणिज्जाणं पुण, अणंतभागो सुयनिबद्धो ॥" केवलज्ञानी जो वचन-योग से प्रवचन करते हैं, वह श्रुतज्ञान से नहीं, प्रत्युत भाषापर्याप्ति नाम कर्मोदय से करते हैं। श्रुतज्ञान क्षायोपशमिक है और केवलज्ञानी में क्षयोपशम भाव का सर्वथा अभाव होता है। भाषापर्याप्ति नाम कर्मोदय से जब वे प्रवचन करते हैं, तब उनका वह वाग्योग द्रव्यश्रुत कहलाता है। जो प्राणी सुन रहे हैं, उनमें वही द्रव्यश्रुत से भावश्रुत का कारण बन जाता है। जिनकी यह मान्यता है कि तीर्थंकर भगवान ध्वन्यात्मक रूप से देशना देते हैं, वर्णात्मक रूप से नहीं, इस गाथा से उनकी मान्यता का स्वतः खण्डन हो जाता है। वइजोग- सुअंहवइ सेसं उनका वचन-योग द्रव्यश्रुत होता है, भावश्रुत नहीं। इस विषय में वृत्तिकार के शब्द निम्नलिखित हैं, जैसे कि-"अन्ये त्वेवं पठन्ति “वइजोगसुयं इवइ तेसिं" तस्यायमर्थः, तेषां श्रोतृणां भावश्रुतकारणत्वात् स वाग्योगः श्रुतं भवति, श्रुतमिति व्यवह्रियत इत्यर्थः" इसका आशय ऊपर लिखा जा चुका है। इससे यह सिद्ध हुआ कि तीर्थंकर भगवान का वचन-योग द्रव्यश्रुत है। वह भावश्रुतपूर्वक नहीं, बल्कि केवलज्ञानपूर्वक होता है, भावश्रुत भगवान में नहीं, अपितु श्रोताओं में पाया जाता है। सम्यग्दृष्टि में जो भावश्रुत है, वह भगवान का दिया हुआ श्रुतज्ञान है। द्रव्यश्रुत केवलज्ञान पूर्वक भी होता है और भाव श्रुतपूर्वक भी, किन्तु वर्तमान काल में जो आगम हैं, वे भावश्रुतपक हैं, क्योंकि वे गणधरों के द्वारा गुम्फित हैं। गणधरों को जो श्रुतज्ञान प्राप्त हुआ, वह भगवान के वचनयोग रूप द्रव्यश्रुत से
हुआ है।
इस तरह सकलादेश पारमार्थिक प्रत्यक्ष एवं नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष ज्ञान का प्रकरण समाप्त हुआ। ।। सूत्र 23 ।।
*288*