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अभेदवाद के समर्थक हुए हैं। यह मान्यता हृदयंगम नहीं होती। क्योंकि हमारे पास प्राचीन उद्धरण विद्यमान हैं।
उपर्युक्त केवलज्ञान और केवलदर्शन के विषय में तीन अभिमतों को संक्षेप से या विस्तार से कोई जिज्ञासु जानना चाहे तो नन्दीसूत्र की चूर्णि, मलयगिरि कृत वृत्ति और हरिभद्र कृत वृत्ति अवश्य पढ़ने का प्रयास करे। जिनभद्रगणी कृत विशेषावश्यक भाष्य में भी उपर्युक्त चर्चा पाई जाती है।
केवलज्ञान का उपसंहार मूलम्-१. अह सव्वदव्वपरिणाम-भावविण्णत्तिकारणमणंतं ।
सासयमप्पडिवाई, एगविहं केवलं नाणं ॥६६ ॥ सूत्र २२ ॥ छाया-१. अथसर्वद्रव्यपरिणाम-भावविज्ञप्तिकारणमनन्तम् ।
शाश्वतमप्रतिपाति, एकविधं केवलं ज्ञानम् ॥ ६६ ॥ सूत्र २२ ॥ पदार्थ-अह-अथ, सव्वदव्व-सम्पूर्णद्रव्य, परिणाम-सब परिणाम, भाव-औदयिक आदि भावों का, वा-अथवा-वर्ण, गन्ध रसादि के, विण्णत्तिकारणं-जानने का कारण है और वह, अणंतं-अन्नत है, सासयं-सदैव काल रहने वाला है, अपडिवाई-गिरने वाला नहीं और वह, केवलं नाणं-केवलज्ञान, एगविहं-एक प्रकार का है।
भावार्थ-केवलज्ञान सम्पूर्ण द्रव्यपरिणाम, औदयिक आदि भावों का अथवा वर्ण, गन्ध, रस आदि को जानने का कारण है, अन्तरहित तथा शाश्वत-सदा काल स्थायी व अप्रतिपाति-गिरने वाला नहीं है। ऐसा यह केवलज्ञान एक प्रकार का ही है ॥ सूत्र २२ ॥
टीका-इस गाथा में केवलज्ञान के विषय का उपसंहार किया गया है और साथ ही केवलज्ञान का आन्तरिक स्वरूप भी बतलाया है। गाथा में “अह" शब्द अनन्तर अर्थ में प्रयुक्त किया गया है अर्थात् मनःपर्यवज्ञान के अनन्तर केवल ज्ञान का अथवा विकलादेश प्रत्यक्ष के अनन्तर सकलादेश प्रत्यक्ष का निरूपण किया गया है। प्रस्तुत गाथा में सूत्रकार ने केवलज्ञान के पांच विशेषण दिये हैं, जो कि विशेष मननीय हैं
1. एतेन यदवादीद् वादीसिद्धसेनदिवाकरो यथा-केवली भगवान् युगपज्जानाति पश्यति चेति तदप्यपास्तमवमन्तव्यमनेन
सूत्रेण साक्षाद् युक्ति पूर्वं ज्ञानदर्शनोपयोगस्य क्रमशो व्यवस्थापितत्वात्।-प्रज्ञापना सूत्र, 30 पद, मलयगिरिवृत्तिः। कंचन सिद्धसेनाचार्यादयो भणन्ति किं? युगपत्-एकस्मिन्नेव काले जानाति पश्यति च कः? केवली नत्वन्यः, नियमात्-नियमेन।
-हारिभद्रीयावृत्तिः नन्दीसूत्रम्।
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