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________________ अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं रहता है । इस समाधान से उक्त दोष की सर्वथा निवृत्ति हो जाती 2. जो यह कहा जाता है कि निरावरण ज्ञान-दर्शन में युगपत् उपयोग न मानने से आवरण-क्षय मिथ्या सिद्ध हो जाएगा, तो यह कथन भी हृदयंगम नहीं होता। क्योंकि किसी विभंगज्ञानी को नैसर्गिक सम्यक्त्व उत्पन्न होते ही मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान एक साथ उत्पन्न होते हैं, यह शास्त्रीय विधान है, किन्तु उपयोग भी सब में युगपत् ही हो, यह कोई नियम नहीं। चार ज्ञान धारण करने वाले को जैसे चतुर्ज्ञानी कहा जाता है, किन्तु उसका उपयोग सबमें नहीं, किसी एक में ही रहता है। अतः जानने तथा देखने का समय एक नहीं, भिन्न-भिन्न है। .. 3. एकान्तर-उपयोग को इतरेतरावरणता नामक दोष कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि केवलज्ञान और केवलदर्शन सदैव अनावरण रहते हैं, इनको क्षायिक लब्धि भी कहते हैं और उनमें से किसी एक में चेतना का. प्रवाहित हो जाना, इसे ही उपयोग कहते हैं। उपयोग जीव का असाधारण गुण है, वह किसी कर्म का फल नहीं है। उपयोग चाहे छद्मस्थ का हो या केवली का, ज्ञान में हो या दर्शन में, वह अन्तर्मुहूर्त से अधिक कहीं भी नहीं ठहर सकता। केवली का उपयोग चाहे ज्ञान में हो या दर्शन में, जघन्य एक समय (काल के अविभाज्य अंश को समय कहते हैं) उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त। इससे अधिक कालमान उपयोग का नहीं है। छद्मस्थ का उपयोग जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त है। उपयोग का स्वभाव बदलने का है, किसी एक में सदा काल भावी नहीं। केवली की कर्मक्षयजन्य लब्धि सदा निरावरण रहती है, किन्तु उपयोग एक में रहता है। इस विषय को स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण दिया जाता है, जैसे एक व्यक्ति ने दो भाषाओं पर पूर्णतया अधिकार प्राप्त किया हुआ है। उन दो भाषाओं में वह धाराप्रवाह बोल सकता है और लिख भी सकता है। जब वह किसी एक भाषा में बोल रहा है, तब दूसरी भाषा लब्धि के रूप रहती है, उस भाषा पर आवरण आ गया, ऐसा समझना उचित नहीं है, क्योंकि आवरण आ जाने का अर्थ होता है, विस्मृत हो जाना। एक समय में एक ही भाषा बोली तथा लिखी जा सकती है, दो भाषाएं नहीं। फिर भले ही वह भाषा-शास्त्री कितनी ही भाषाओं का विद्वान हो। अथवा टेलीग्राम भी एक व्यक्ति एक काल में एक ही भाषा में दे सकता है। उस समय अन्य भाषाएं लब्धि रूप में विद्यमान रहती हैं। इसी प्रकार केवलज्ञान केवलदर्शन के विषय में भी समझना चाहिए। लब्धि अनावरण रहती है, वह सादि-अनन्त है, किन्तु उपयोग सदा-सर्वदा सादि-सान्त ही होता है, वह कभी ज्ञान में और कभी दर्शन में, इस प्रकार बदलता रहता है। अतः इतरेतरावरणता 1. प्रज्ञापना सूत्र, पद 18 तथा जीवाभिगम । 2. प्रज्ञापना सूत्र, पद 30 तथा भगवती सूत्र, श0 25 । *281 * -
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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