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________________ दोष मानना सर्वथा अनुचित है। 4. अनावरण होते ही ज्ञान-दर्शन का पूर्ण विकास होता है फिर निष्कारण - आवरण होने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता। क्योंकि आवरण के हेतु और आवरण, दोनों के अभाव होने पर ही केवली बनता है, किन्तु उपयोग का स्वभाव ही ऐसा है, वह दोनों में से एक समय में किसी एक ओर ही प्रवाहित होता है, दोनों ओर नहीं । आवरण आ जाना उसे कहते हैं, कि निरावरण उक्त ज्ञान या दर्शन में उपयोग लगाने पर व्यवधान आ जाने से न जान सके और न देख सके। अतः केवली का ज्ञान दर्शन उक्त दोष से निर्दोष है। जीव के उपयोग का स्वभाव ही अचिन्त्य है। इस 5. जो यह कहा जाता है कि केवली जिस समय जानता है, उस समय में देखता नहीं, से असर्वदर्शित्व और जिस समय देखता है, उस समय में जानता नहीं, इससे असर्वज्ञत्व सिद्ध होता है, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी नहीं। इसके उत्तर में भी यही कहा जा सकता हैं, कि जो आगम में सर्वज्ञ-सर्वदर्शी कहा है, वह लब्धि की अपेक्षा से, न कि उपयोग की अपेक्षा से ऐसा कहा गया है। जब ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मों का सर्वथा क्षय होता है, तब उनके साथ ही अन्तराय कर्म का भी सर्वथा विलय हो जाता है । दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय इनके क्षय होने पर पांच लब्धियाँ पैदा होती हैं, फिर भी केवली न सदा देते हैं न लेते ही हैं, न वस्तु का भोग व उपभोग ही करते हैं और न अनन्त शक्ति का सदा प्रयोग ही करते हैं। हां, कार्य उत्पन्न होने पर देते भी हैं तथा अनन्त शक्ति का प्रयोग भी करते हैं। निरन्तराय होने से उनके किसी भी कार्य में बिघ्न नहीं पड़ता, यही उनके निरन्तराय होने का महाफल है। इस प्रकार केवली के निरावरण ज्ञान-दर्शन होने का यही लाभ है, कि उपयोग लगने में किसी भी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होती । केवली को लब्धि की अपेक्षा से सर्वज्ञत्व और सर्वदर्शित्व कहा जाता है, न कि उपयोग की अपेक्षा से। अतः एकान्तर-उपयोग पक्ष उक्त दोष से सर्वतोभावेन निर्दोष ही है। 6. जो यह कहा जाता है कि क्षीण मोह वाले निर्ग्रन्थ के ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म क्रमश: नहीं, अपितु युगपत् ही क्षय होते हैं। इस दृष्टि से भी युगपत् उपयोगवाद युक्ति संगत सिद्ध होता है, एकान्तरवाद दोषपूर्ण है। इसके उत्तर में यह कहा जाता है कि आवरण क्षय तो दोनों का युगपत् ही होता है, किन्तु उपयोग भी युगपत् ही हो, यह कोई शास्त्रीय नियम नहीं है। जैसे कि आगम में कहा है कि सम्यक्त्व-मति - श्रुत तथा आदि पद से अवधि ज्ञान ग्रहण किया जाता है। इन का आविर्भाव जैसे एक काल में होता है, किन्तु उपयोग सब युगपत् नहीं होता "जह जुगवुप्पत्तीएवि, सुत्ते सम्मत्त मइसुयाईणं । नत्थि जुगवोवओगा, सव्वेसु तहेव केवलिणो ॥ 282
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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