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ज्ञान-उपयोग नहीं। इन्हें दूसरे शब्दों में सिद्धान्तवादी भी कहते हैं। इस मान्यता को क्रम-भावी तथा एकान्तर उपयोगवाद भी कहते हैं। इस मान्यता के समर्थक जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण हुए
हैं।
2. केवलज्ञान और केवलदर्शन के विषय में दूसरा अभिमत युगपद्वादियों का है, उनका कहना है-जब ज्ञान-दर्शन निरावरण हो जाते हैं, तब वे क्रम से नहीं, एक साथ प्रकाश कर हैं। दिनकर का प्रकाश और ताप जैसे युगपत् होते हैं, वैसे ही निरावरण ज्ञान-दर्शन भी एक साथ अपने-अपने विषय को ग्रहण करते हैं, क्रमश: नहीं। इस मान्यता के मुख्यतया समर्थक आचार्य सिद्धसेनदिवाकर हुए हैं, जो कि अपने युग में अद्वितीय तार्किक थे।
3. तीसरी मान्यता अभेदवादियों की है। उनका कहना है कि केवलज्ञान होने पर केवलदर्शन की सत्ता विलुप्त हो जाती है, जब केवलज्ञान से सर्व विषयों का ज्ञान हो जाता है, तब केवलदर्शन का क्या प्रयोजन रहा ? जिस कारण केवलदर्शन की आवश्यकता आ पड़े ? दूसरा कारण ज्ञान को प्रमाण माना है, दर्शन को नहीं । अतः ज्ञान की अपेक्षा दर्शन को अप्रधान माना है, इस मान्यता के समर्थक आचार्य वृद्धवादी हुए हैं।
इष्टापत्तिजनक - क्रमवाद
युगपद्वादियों का विश्वास है कि केवलज्ञान और केवलदर्शन दोनों उपयोग सादि-अनन्त हैं, इसलिए केवली युगपत् पदार्थों को जानता व देखता है, जैसे कि कहा भी है
"जं केवलाई सादी, अपज्जवसिताइं दोऽवि भणिताइं । तो बेंति केई जुगवं जाणइ पासइ यं सव्वण्णू ॥
1. उनका कहना हैं कि एकान्तर - उपयोग पक्ष में सादि-अनन्त घटित नहीं होता, क्योंकि जब ज्ञानोपयोग होता है, तब दर्शनोपयोग नहीं और जब दर्शनोपयोग होता है, तब ज्ञानोपयोग नहीं। इस से उक्त ज्ञान और दर्शन सादि - सान्त सिद्ध होते हैं, जो कि इष्टापत्तिजनक हैं, जब कि सिद्धान्त है - निरावरण दोनों उपयोग सादि - अनन्त हैं।
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2. एकान्तर—-उपयोग पक्ष में दूसरा दोष मिथ्यावरणक्षय है । छद्मस्थ-उपयोग में कार्य-कारण भाव तथा प्रतिबन्ध्य-प्रतिबन्धक भाव पाया जाता है किन्तु क्षायिक भाव में यह नियम नहीं । निरावरण होने पर उक्त दोनों उपयोग एक साथ प्रकाशित होते हैं, जैसे जगमगाते हुए दो दीपकों को निरावरण कर देने से वे एक साथ प्रकाश करते हैं, क्रमश: नहीं। यदि निरावरण होने पर भी वे क्रमशः ही प्रकाशित होते हैं, तो आवरण-क्षय मिथ्यासिद्ध हो जाएगा। अतः केवली युगपत् जानते व देखते हैं। यह मान्यता निर्विवाद एवं निर्दोष है।
3. एकान्तर–उपयोग पक्ष में युगपद्वादी तीसरा दोष इतरेतरावरणता सिद्ध करते हैं। इस का संधिच्छेद है - इतर+इतर+आवरणता । इसका अर्थ है- केवलज्ञान, केवलदर्शन पर आवरण
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