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नहीं बल्कि केवलज्ञान और केवलदर्शन से साक्षात्कार करते हैं।
क्षेत्रत:- वे केवलज्ञान के द्वारा लोक- अलोक के क्षेत्र को जानते व देखते हैं। यद्यपि सर्वद्रव्य ग्रहण करने से आकाशास्तिकाय का भी ग्रहण हो जाता है, तदपि क्षेत्र की रूढि से. इसका पृथक् उपन्यास किया गया है।
कालतः - उपर्युक्त दोनों प्रकार के केवलज्ञानी सर्वकाल को अर्थात् अतीत, अनागत और वर्तमान के सभी समयों को जानते व देखते हैं। अतीत-अ - अनागत काल के समयों को भी वर्तमान काल की तरह जानते व देखते हैं।
भावतः - केवलज्ञानी सभी भावों को तथा सर्वपर्यायों को एवं आत्म स्वरूप, परस्वरूप, गति, आगति, कषाय, अगुरुलघु, औदयिक भावों को, जीव- अजीव की सभी पर्यायों को जानते व देखते हैं। एवं क्षयोपशम, क्षायिक, औपशमिक तथा पारिणामिक भावों को तथा पुद्गल के जघन्य वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान को भी जानते व देखते हैं। और अनन्तगुणा वर्णादि गुणों को भी । अनन्त द्रव्य पर्याय और अनन्त गुणपर्याय अर्थात् सभी द्रव्य और सभी पर्याय केवलज्ञान और केवलदर्शन के विषय हैं। वे अपने को भी जानते हैं और पर को भी। ज्ञान महान है, और ज्ञेय अल्प है।
केवलज्ञान और केवलदर्शन के विषय में आचार्यों की तीन विभिन्न धारणाएं बनी हुई हैं, वे धारणाएं क्या हैं, जिज्ञासुओं की जानकारी के लिए उनका उल्लेख करना आवश्यकीय प्रतीत होता है। जैनदर्शन उपयोग के बारह भेद मानता है, जैसे कि पांच ज्ञान- -मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यव और केवलज्ञान । तीन अज्ञान -मति, श्रुत और विभंगज्ञान। चार दर्शनचक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । इनमें से किसी एक में कुछ क्षणों के लिए स्थिर - संलग्न हो जाने को ही उपयोग कहते हैं। केवल ज्ञान और केवल दर्शन के अतिरिक्त दस उपयोग छद्मस्थ में पाए जाते हैं। मिथ्यादृष्टि में तीन अज्ञान और तीन दर्शन, इस प्रकार छ: उपयोग पाए जाते हैं। समुच्चय सम्यग्दृष्टि में तीन अज्ञान के अतिरिक्त शेष 9 उपयोग पाए जाते हैं। केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो उपयोग अनावृत कहलाते हैं, इन्हें कर्मक्षयजन्य उपयोग भी कह सकते हैं। शेष दस उपयोग क्षायोपशमिक-छाद्मस्थिक-आवृतानावृत संज्ञक हैं, इनमें ह्रास-विकास, न्यून-आधिक्य पाया जाता है। किन्तु केवलज्ञान और केवलदर्शन, इन उपयोगों में तीन काल में भी ह्रास - विकास, न्यून - आधिक्य नहीं पाया जाता, वे उदय होने पर कभी अस्त नहीं होते। अतः वे सादि-अनन्त कहलाते हैं।
छाद्मस्थिक उपयोग क्रमभावी है, इस विषय में भी सभी आचार्यों का एक अभिमत है। किन्तु केवली के उपयोग के विषय में मुख्यतया तीन धारणाएं हैं, जैसे कि
1. निरावरण ज्ञान-दर्शन होते हुए भी केवली में एक समय में एक ही उपयोग होता है, जब ज्ञान- उपयोग होता है, तब दर्शन-उपयोग नहीं, जब दर्शन-उपयोग होता है, तब
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