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को प्राप्त हुए हैं, जैसे कि नमिराज ऋषि, उन्हें प्रत्येक बुद्ध सिद्ध कहते हैं। स्वयं बुद्ध और प्रत्येकबुद्ध इन दोनों में बोधि, उपधि, श्रुत और लिंग इन चार विशेषताओं का परस्पर अन्तर है । जिज्ञासुओं को विशेष व्याख्या मलयगिरी वृत्ति में देख लेनी चाहिए।
७. बुद्धबोधितसिद्ध - आचार्य आदि के द्वारा प्रतिबोध दिए जाने पर जो सिद्ध गति को प्राप्त करें, उन्हें बुद्धबोधित कहते हैं। अतिमुक्त कुमार, चन्दन बाला, जम्बूस्वामी इत्यादि सब इसी कोटि के सिद्ध हुए हैं।
८. स्त्रीलिंग सिद्ध-यहां स्त्रीलिंग शब्द स्त्रीत्व का सूचक है। स्त्रीत्व तीन प्रकार का बतलाया गया है, एक वेद से, दूसरा निर्वृत्ति से और तीसरा वेष से । वेद उदय से सिद्ध होना नितान्त असंभव है, क्योंकि जब स्त्री में पुरुष के सहवास की इच्छा हो तब उसे स्त्री वेद कहते हैं। वेदोदय में सिद्धत्व का सर्वथा अभाव ही है। वेष (नैपथ्य) की कोई प्रामाणिकता नहीं है। क्योंकि स्त्री वेष में पुरुष एवं मूर्ति भी हो सकती है। अतः यहां शास्त्रकार को शरीरनिर्वृत्ति तथा स्त्री के अंगोपांग से प्रयोजन है । चूर्णिकार ने भी लिखा है कि स्त्री के आकार में रहते हुए जो मुक्त हो गए हैं, वे स्त्रीलिंग सिद्ध कहलाते हैं, जैसे कि "इत्थीए लिंग इत्थिलिंग, इत्थीए उवलक्खणन्ति वृत्तं भवति तं च तिविहं वेयो, सरीरनिव्वत्ती, नेवत्थं च, इह सरीरनिव्वत्तीए अहिगारो न वेय, नेवत्थेहिं त्ति । "
स्त्रीलिंग मोक्ष में बाधक नहीं है, क्योंकि मोक्ष प्राप्ति का सरल मार्ग सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र हैं। इनकी पूर्ण आराधना करने से ही जीव सिद्ध होते हैं। बिना आराधना किए पुरुष भी सिद्ध नहीं हो सकता । क्षुधा की निवृत्ति खाद्य पदार्थ से हो सकती है, वह पदार्थ चाहे सोने के थाल में हो या कांसी के थाल में, चाहे पत्तल में ही क्यों न हो, अभिप्राय खाद्य पदार्थ से है, न कि आधार पात्र से। इसी प्रकार सूत्रकार का अभिप्राय गुणों से है न कि लिंग से। कभी-कभी शिक्षा में महिलाएं पुरुषों से भी सर्वप्रथम रहती हैं। वे अपनी शक्ति से शेरों को भी पछाड़ देती हैं, डाकुओं के मुकाबले में तथा शत्रुओं के मुकाबले में विजय प्राप्त करती हैं। फिर भी महिलाएं रत्नत्रय की सर्वोत्कृष्ट आराधना नहीं कर सकतीं, ऐसा कहना केवल मतपक्ष ही है, एकान्तवाद है, अनेकान्तवाद नहीं।
यदि ऐसा कहा जाए कि स्त्री नग्न नहीं हो सकती, क्योंकि वह वस्त्र सहित होती है, वस्त्र परिग्रह है, परिग्रही को मोक्ष नहीं, तो यह भी उनका कहना समीचीन नहीं है। क्योंकि आगम में कहा है- “मुच्छा परिग्गहो वुत्तो' - ममत्त्व ही परिग्रह है। मूर्छा रहित स्वर्ण के सिंहासन पर बैठे हुए तीर्थंकर भी निष्परिग्रही हैं ।
1. दशवैकालिक सू० अ० 6, गाथा 21 ।
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