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________________ अरहा ताव नियमा तित्थंकरे, तित्थं पुण चाउवण्णो समणसंघो, पढमगणहरो वा " तस्मिन्नुत्पन्ने ये सिद्धास्ते तीर्थसिद्धाः । ' " इस कथन से द्रव्य तीर्थ का निषेध स्वयं सिद्ध हो जाता है। तीर्थंकर भगवान शत्रुंजय, सम्मेदशिखर आदि द्रव्य तीर्थ के स्थापन करने वाले नहीं होते । सूत्रकार को वास्तव में भावतीर्थ ही स्वीकार है, अन्य द्रव्यतीर्थ का यहां भगवान ने कोई उल्लेख नहीं किया। २. अतीर्थसिद्ध- इसका भाव यह है - तीर्थ के स्थापन करने से पहले या तीर्थ के व्यवच्छेद हो जाने के पश्चात् जो जीव सिद्ध गति को प्राप्त करते हैं, उन्हें अतीर्थ सिद्ध कहते हैं। जैसे मरुदेवी माता ने तीर्थ की स्थापना होने से पहले ही सिद्धगति को प्राप्त किया। भगवान सुविधिनाथ जी से लेकर शान्तिनाथ भगवान तक, आठ तीर्थंकरों के बीच, सात अन्तरों में तीर्थ का व्यवच्छेद होता रहा। उस समय जातिस्मरण आदि ज्ञान उत्पन्न होने पर, फिर अन्तकृत् केवली होकर जो सिद्ध हुए हैं, उन्हें अतीर्थसिद्ध कहते हैं। जैसे विशिष्टनिमित्त से संसार सागर पार होने वाले बहुत हैं, किन्तु बिना विशिष्ट निमित्त के काललब्धि पूर्ण होने पर स्वतः आभ्यन्तरिक उपादान कारण तैयार होने पर सिद्ध होने वाले बहुत ही कम संख्या में होते हैं। ३. तीर्थंकरसिद्ध - विश्व में लौकिक तथा लोकोत्तरिक पदों में तीर्थंकर पद सर्वोपरि है। इस पद की प्राप्ति का उपक्रम अन्तः कोटाकोटी सागर पहले से ही प्रारम्भ हो जाता है। धर्मानुष्ठान की सर्वोत्कृष्ट रसानुभूति से तीर्थंकर नाम - गोत्र का जब बन्ध हो जाता है, तब तीसरे भव में नियमेन तीर्थंकर बन जाने का अनादि नियम है। तीर्थंकर का जीवन गर्भवास से लेकर निर्वाण पर्यन्त आदर्श एवं कल्याणमय होता है, जब तक उन्हें केवलज्ञान नहीं हो जाता, तब तक वे धर्मोपदेश नहीं करते। केवलज्ञान प्राप्त होने पर ही प्रवचन करते हैं। प्रवचन से प्रभावित हुए विशिष्ट विकसित पुरुष दीक्षित होकर गणधर बनते हैं, तब भावतीर्थ की स्थापना करने से उन्हें तीर्थंकर कहा जाता है। जो तीर्थंकर पद पाकर सिद्ध बने हैं, उन्हें तीर्थंकर सिद्ध कहते हैं। ४. अतीर्थंकरसिद्धा - तीर्थंकर के व्यतिरिक्त अन्य जितने लौकिक पदवीधर चक्रवर्ती, बलदेव, माण्डलीक, सम्राट् और लोकोत्तरिक आचार्य, उपाध्याय, गणधर, अन्तकृत केवली तथा सामान्य केवली इन सबका अन्तर्भाव अतीर्थंकर सिद्ध में हो जाता है। ५. स्वयंबुद्धसिद्ध - जो बाह्य निमित्त के बिना किसी के उपदेश, प्रवचन सुने बिना ही जाति - स्मरण, अवधिज्ञान के द्वारा स्वयं विषय कषायों से विरक्त हो जाएं, उन्हं स्वयंबुद्ध कहते हैं। इसमें तीर्थंकर तथा अन्य विकसित उत्तम पुरुषों का भी अन्तर्भाव हो जाता है अर्थात् जो स्वयमेव बोध को प्राप्त हुए हैं, उन्हें स्वयंबुद्ध कहते हैं, ऐसे सिद्ध । ६. प्रत्येकबुद्धसिद्ध-उपदेश-प्रवचन श्रवण किए बिना जो बाहर के निमित्तों द्वारा बोध 272
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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