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नहीं होती, जैसे कि चन्द्रमा । किन्तु आपमें तेजस्विता भी थी । यदि कोई वादी अभिमानी दुर्विदग्ध कट्टरपंथी भी आपके पास आता, तो वह प्रभावित हुए बिना नहीं रहता । विद्वत्ता, सहनशीलता, नम्रता, संयम एवं गम्भीरता, इत्यादि अनेक गुणों ने आपको दिव्य तेजस्विता से देदीप्यमान बना रखा था।
दयालुता और सेवाभावत्व
साधुता सुकोमलता के साथ पलती है, शरीर में नहीं, हृदय में दया होनी चाहिए। वह साधु ही क्या है जिसमें दयालुता न हो। ये दो गुण आपमें विशिष्ट थे। जहां आचार्यश्री जी अपने दुःख को सहन करने में दृढ़तर थे, धैर्यवान थे, वहां दूसरों पर दयालुता की भी कुछ न्यूनता नहीं थी । आपने अपने जीवन में जैनाचार्य श्री मोतीराम जी महाराज, तपस्वी श्री गणपतिरायजी महाराज, श्रद्धेय जयरामदासजी महाराज, गुरुवर्य श्री शालिग्राम जी महाराज की बहुत वर्षों तक निरन्तर सेवा की। ग्लाना, स्थविर, तपस्वी, नवदीक्षित की सेवा करने में आपने कभी भी मन नहीं चुराया । आगमों के अध्ययन एवं लेखन कार्य में संलग्न होने पर भी जब सेवा की आवश्यकता पड़ी, तब तुरन्त ही सेवा में उपस्थित हो जाते, सेवा से निवृत्त होकर पुनः चालू कार्य को पूरा करने में तत्पर हो जाते। छोटे से छोटे साधुओं की सेवा करने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं था | औषधोपचार, अनुपान, आहारादि लाते हुए आचार्य श्री जी को मैंने स्वयं देखा। जो दयालु होते हैं, वे सेवाभावी भी होते हैं, जो सेवाभावी होते हैं वे दयालु भी होते हैं, यह एक निश्चित सिद्धान्त है।
प्रसन्नमुख और मधुरभाषी
आचार्यवर्य जी का मुखकमल सदा विकसित रहता था। आप स्वयं प्रसन्न रहते थे, सन्निकट रहने वालों को भी सदा प्रसन्न रखते थे, आपकी वाणी माधुर्य एवं प्रसादगुण युक्त थी। जब किसी को शिक्षा उपदेश देते थे, तब ऐसा प्रतीत होता था मानो मुखारविन्द से मकरन्द टपक रहा हो, पीयूष की बूंदें कर्णेन्द्रिय से होती हुई हृदयघट में पड़ रही हों । कटुता कुटिलता, कठोरता न मन में थी, न वचन में और न व्यवहार में। आपकी वाणी सत्यपूत तथा शास्त्रपूत होने से सविशेष मधुर थी।
साहित्य सृजन और आगमों का हिन्दी अनुवाद
पंजाब प्रान्त में जितने मुनिसत्तम, पट्टधर एवं प्रसिद्ध वक्ता हुए हैं, उनमें साहित्य सृजन का और आगमों के हिन्दी अनुवाद करने का सबसे पहला श्रेय आपको प्राप्त हुआ है। आपने लगभग छोटी-बड़ी सब 60 पुस्तकें लिखी हैं। जैन न्याय संग्रह, जैनागमों में स्याद्वाद, जैनागमों में परमात्मवाद, जीवकर्म संवाद, वीरत्थुई, जैनागमों में अष्टांगयोग, विभक्ति संवाद विशेष पठनीय हैं। आवश्यक सूत्र दोनों भाग, अनुयोगद्वार सूत्र, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, उपासकदशांग, स्थानांग, अन्तगड, अनुत्तरोपपातिक, दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, निरयावलिका
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