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गम्भीर और दीर्घदर्शी
आचार्यवर्य जी गम्भीरता में महासमुद्र के समान थे। जिस समय शास्त्रों का मनन करते थे, उस समय गहरी डुबकी लगाकर अनुप्रेक्षा करते-करते आगमधरों के आशय को स्पर्श कर लेते थे। आप अपने विचारों को स्वतन्त्र नहीं, बल्कि आगमों के अनुकूल मिलाकर ही चलते थे। गुणों में पूर्णता का होना ही गम्भीरता का लक्षण है। प्रत्येक कार्य के अन्तिम परिणाम को पहले देखकर फिर उसे प्रारम्भ करते थे। उक्त दोनों महान गुण आपके सहचारी
थे।
नम्रता और सहिष्णुता
ये दोनों गुण उस व्यक्ति में हो सकते हैं जिसमें अभिमान और ममत्व न हो। आचार्य प्रवर जी के जीवन में मैंने कभी अभिमान नहीं देखा और न शरीर पर अधिक ममत्व ही। आपका जब जन्म हुआ, तब मालूम पड़ता है कि विनय और नम्रता को साथ लिए हुए ही उत्पन्न हुए हैं। आप नवदीक्षित मुनि को भी जब सम्बोधित करते तब नाम के पीछे 'जी' कहकर ही बुलाते थे। नम्रता में आपने स्वर्ण को भी जीत रखा था। नम्रता आत्मा का गुण है। अहंकार आत्मा में कठोरता पैदा करता है। नम्रता से ही आत्मा सद्गुणों का भाजन बनता है। जहां पूज्यवर में नम्रता की विशेषता थी, वहां सहिष्णुता में भी वे पीछे नहीं थे। परीषह-उपसर्ग सहन करने में मेरु के समान अडोल थे। अनेकों बार मारणान्तिक कष्ट भी आए, फिर भी मुख से हाय, उफ तक नहीं निकली। उस समय वेदना में भी जो उनकी दिनचर्या और रात्रिचर्या का कार्यक्रम होता था, उसमें कभी अन्तर नहीं पड़ने देते-"अवि अप्पणोवि देहम्मि नायरन्ति ममाइयं"'महानिर्ग्रन्थ अपने देह पर भी ममत्व नहीं करते' मानो इस पाठ को आपने अपने जीवन में चरितार्थ कर रखा हो, सहनशीलता में आप अग्रणी नेता थे। शक्ति और तेजस्विता - उक्त दोनों गुण परस्पर विरोधी होते हुए भी आचार्य श्री जी में ऐसे मिल-जुल के रहते, जैसे कि तीर्थंकर के समवसरण में सहज वैरी भी वैरभाव छोड़कर शेर और मृग एक स्थान में बैठे हुए धर्मोपदेश सुनते हैं। शेर को यह ध्यान नहीं आता कि मेरे पास मेरा भोज्य बैठा है
और मृग को यह ध्यान नहीं आता कि मेरे पास मुझे ही खाने वाला पंचानन बैठा है। इसी प्रकार शान्तता वहीं हो सकती है, जहां क्रोध न हो, वैर, क्रोध, ईर्ष्या-द्वेष जहां हों, वहां शान्तता कहां? आप सचमुच शान्ति के महान सरोवर थे। दुःखदावानल से संतप्त व्यक्ति जब आपकी चरण-शरण में बैठता तो वह शान्तरस का अनुभव करने लग जाता। इस गुण ने आपके जीवन में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त कर रखा था। जहां शान्ति होती है, वहां तेजस्विता
1. दशवैकालिक सूत्र अ0 छठा गाo 22 ॥
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