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आदि 5 सूत्र, प्रश्नव्याकरण इनकी व्याख्या हिन्दी में की है। नन्दीसूत्र आपके हाथों में ही है। समवायांग को सम्पूर्ण नहीं करने पाए। स्वाध्याय और स्मृति की प्रबलता ___आवश्यकीय कार्य के अतिरिक्त जब कभी उन्हें देखा, तब आगमों के अध्ययन-अध्यापन करते ही देखा है। स्वाध्याय उनके जीवन का एक विशेष अंग बना हुआ था। इसी कारण आप आडम्बरों तथा अधिक जन संसर्ग से दूर ही रहते थे। स्वाध्याय, ध्यान, समाधि, योगाभ्यास में अभिरुचि अधिक थी। आपका बाह्य तप की अपेक्षा आभ्यन्तर तप की ओर अधिक झुकाव रहा। - आपकी स्मृति बड़ी प्रबल थी। जो ग्रन्थ, दर्शन, आगम, टीका, चूर्णि, भाष्य, वेद, पुराण, बौद्धग्रन्थ एक बार देख लिया, उसका मनन पूर्वक अध्ययन किया और उसकी स्मृति बनी। जब कभी अवसर आता तब तुरन्त स्मृति जग उठती थी। सूत्रों और ग्रन्थों पर तो ऐसी दृढ़ धारणा बन गई थी कि अन्तिम अवस्था में नेत्रज्योति मन्द होने पर भी, वही पृष्ठ निकाल देते, जिस स्थल में वह विषय लिखा हुआ है। इससे जान पड़ता है कि आचार्य प्रवर जी आगम चक्षुष्मान थे। 'तत्वार्थसूत्र जैनागमसमन्वय' की रचना आपके आगमाभ्यास और स्मृति का अद्भुत एवं अनुपम परिणाम है। तत्वार्थसूत्र-जैनागमसमन्वय - आचार्यप्रवरजी अपने युग में प्रकांड विद्वान हुए हैं। उनके आगमों का अध्ययनमनन-चिन्तन-अनुप्रेक्षा-निदिध्यासन अनुपम ही था। वि.सं. 1989 के वर्ष आप ने दस ही दिनों में दिगम्बर मान्य तत्त्वार्थ सत्र का समन्वय 32 आगमों से पाठों का उद्धरण करके यह सिद्ध किया है कि यह तत्त्वार्थसूत्र उमास्वति जी ने आगमों से उद्धृत किया है। उन सूत्रों का मूलाधार क्या है यह रहस्य सदियों से अप्रकाशित रहा, उसी रहस्य का उद्घाटन जब आप पंजाब संप्रदाय के उपाध्याय पद को सुशोभित करते हुए अजमेर में होने वाले बृहत्साधुसम्मेलन में भाग लेने के लिए पंजाब से देहली पधारे, जब वहीं समन्वय का कार्य सम्पन्न किया। इस महान कार्य की प्रशस्ति महामनीषी पण्डित प्रवर सुखलालजी ने मुक्त कण्ठ से की है। उन्होंने तत्वार्थ सूत्र की भूमिका में लिखा है-'तत्वार्थ सूत्र जैनागमसमन्वय' नामक जो ग्रन्थ स्थानकवासी मुनि उपाध्याय श्री आत्माराम जी की लिखी प्रसिद्ध हुई है, वह अनेक दृष्टियों से महत्व रखती है। जहां तक मैं जानता हूं स्थानकवासी परम्परा में तत्वार्थ सूत्र की प्रतिष्ठा और लोकप्रियता का स्पष्ट प्रमाण उपस्थित करने वाला उपाध्याय जी का प्रयास प्रथम ही है। यद्यपि स्थानकवासी परम्परा को तत्वार्थ सूत्र और उसके समग्र व्याख्याग्रन्थों में किसी भी प्रकार की विप्रतिपत्ति या विमति कभी नहीं रही है तदपि वह परम्परा उसके विषय में कभी इतना रस या इतना आदर बतलाती नहीं थी, जितना अन्तिम कुछ वर्षों से बतलाने