________________
आत्मलक्ष्यी होता है। वीतराग दशा में ज्ञान खेद का कारण नहीं बनता, बल्कि परमानन्द का कारण होता है। .
इस-सूत्र से यह मान्यता बिल्कुल स्पष्ट एवं निःसन्देह सिद्ध होती है कि मुक्तात्मा में केवलज्ञान विद्यमान है, वह दीपक की तरह बुझने वाला नहीं और सूर्य की तरह अस्त होने वाला भी नहीं है, वह आत्मा का निजगुण है। केवलज्ञान जैसे शरीर में प्रकाश करता है, वैसे ही शरीर के सर्वथा अभाव होने पर भी। क्योंकि कर्मक्षयजन्य गुण कभी भी लुप्त नहीं होते। ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति, इन गुणों के पूर्ण विकास को ही कैवल्य कहते हैं। ये गुण आत्मा की तरह अविनाशी सहभावी अरूपी और अमूर्त हैं। अतः सिद्धों में इन गुणों का सद्भाव अनिवार्य है।
सिद्ध केवलज्ञान मूलम्-से किं तं सिद्धकेवलनाणं? सिद्धकेवलनाणं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-अणंतरसिद्धकेवलनाणंच, परंपरसिद्धकेवलनाणं च ॥ सूत्र २०॥
छाया-अथ किं तत् सिद्धकेवलज्ञानम् ? सिद्ध केवलज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथाअनन्तरसिद्धकेवलज्ञानं च, परम्परसिद्धकेवलज्ञानञ्च ॥ सूत्र २० ॥ . पदार्थ-से किं तं सिद्धकेवलमाणं ?-वह सिद्धकेवलज्ञान कितने प्रकार का है ? सिद्धकेवलनाणं दुविहं पण्णत्तं-सिद्धकेवलज्ञान दो प्रकार का प्रतिपादन किया गया है, तंजहा-जैसे कि, अणंतरसिद्धकेवलनाणं च-अनन्तरसिद्धकेवलज्ञान और, परंपरसिद्धकेवलनाणं च-परंपरसिद्धकेवलज्ञान।
भावार्थ-शिष्य ने प्रश्न किया, गुरुदेव ! वह सिद्धकेवलज्ञान कितने प्रकार का है? गुरुदेव जी उत्तर में बोले, भद्र ! वह दो प्रकार का वर्णित है, यथा-१. अनन्तर सिद्धकेवलज्ञान और २. परंपर सिद्धकेवलज्ञान। . टीका-जैन दर्शन के अनुसार तैजस और कार्मण शरीर से आत्मा का सर्वथा पृथक् हो जाना ही मोक्ष है। वैदिक परम्परा में सूक्ष्म शरीर जिसे लिंग तथा कारण शरीर भी कहते हैं, उससे जब आत्मा अलग हो जाता है, उसी को मोक्ष माना है, वास्तव में भाव दोनों का एक ही है। सिद्ध भगवान् एक की अपेक्षा से सादि-अनन्त हैं और बहुतों की अपेक्षा से अनादिअनन्त हैं, उनका अस्तित्व सदा काल भावी है। इन्सान से ही भगवान बनता है। ऐसा कोई सिद्ध नहीं, जो इन्सान से भगवान न बना हो। आत्मा की विशुद्ध अवस्था ही सिद्धावस्था है। अपूर्ण से पूर्ण होना ही सिद्धत्व है। अरिहन्त भगवान जो कि जीवन्मुक्त और आप्त होते हैं, उन्होंने अपने केवलालोक से सिद्ध भगवन्तों को प्रत्यक्ष किया है, तदनु उन्होंने सिद्धों का स्वरूप, एवं अस्तित्व बताया है, वे सत् हैं, गगनारविन्द की तरह नितान्त असत् नहीं हैं।
- *253