________________
जिनमें ज्ञान और आनन्द अविनाशी हों, उन्हें सच्चिदानन्द कहते हैं। सिद्ध बनने की योग्यता भव्यों में है, अभव्यों में नहीं।
इस सूत्र में सिद्ध केवलज्ञान के दो भेद किए हैं- एक वे जिन्हें सिद्ध हुए एक ही समय हुआ है और दूसरे वे जिन्हें सिद्ध हुए दो से लेकर अधिक समय हो गए हैं। उन्हें क्रमशः अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान और परम्पर सिद्ध केवलज्ञान कहते हैं।
वृत्तिकार ने जिज्ञासुओं की जानकारी के लिए सिद्धप्राभृत ग्रंथ के आधार से सिद्धस्वरूप का उल्लेख किया है, जैसे
१. आस्तिकद्वार - सिद्ध के अस्तित्व होने पर ही आगे विचार किया जाता है।
२. द्रव्यद्वार - अर्थात् जीवद्रव्य का प्रमाण, वे एक समय में कितने सिद्ध हो सकते हैं? ३. क्षेत्रद्वार - सिद्ध किस क्षेत्र में विराजित हैं, इसका विशेष वर्णन। ·
४. स्पर्शद्वार - सिद्ध कितना स्पर्श करे, इसका विवेचन ।
५. कालद्वार - जीव कितने काल तक निरन्तर सीझें ?
६. अन्तरद्वार - सिद्धों का विरह काल कितना है ?
७. भावद्वार - सिद्धों में कितने भाव पाए जाते हैं ?
८. अल्पबहुत्वद्वार-सिद्ध, कौन, किससे न्यूनाधिक है ?
ये आठ द्वार हैं, प्रत्येक द्वार पर 15 उपद्वार क्रमशः घटाए हैं, वे उपद्वार ये हैं- 1. क्षेत्र, 2. काल, 3. गति, 4. वेद, 5. तीर्थ, 6. लिंग, 7. चारित्र, 8. बुद्ध, 9. ज्ञान, 10. अवगाहना, 11. उत्कृष्ट, 12. अन्तर, 13. अनुसमय, 14. संख्या, 15. अल्पबहुत्व । सबसे पहले इन 15 उपद्वारों का अवतरण आस्तिक द्वार पर करते हैं, जैसे
१. आस्तिकद्वार
१. क्षेत्रद्वार - अढ़ाई द्वीप के अन्तर्गत 15 कर्मभूमि से सिद्ध होते हैं । साहरण आश्रयी दो समुद्र, अकर्मभूमि, अन्तरद्वीप, ऊर्ध्वदिशा में पण्डुकवन, अधोदिशा में अधोगामिनी विजय से भी जीव सिद्ध होते हैं।
२. कालद्वार - अवसर्पिणीकाल के तीसरे आरे के उतरते समय और चौथा आरा सम्पूर्ण तथा पांचवें आरे में 64 वर्ष तक सिद्ध हो सकते हैं। उत्सर्पिणीकाल के तीसरे आरे
1. तीसरे आरे के 3 वर्ष 811 मास शेष रहने पर श्री ऋषभदेव भगवान का निर्वाण हुआ । चौथे आरे में 23 तीर्थंकर हुए हैं, जब चौथे आरे के 3 वर्ष 811 मास शेष रह गए, तब श्रमण भगवान महावीर का निर्वाण हुआ ।
*254