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अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है, तावन्मात्र काल पर्यन्त चौदहवें गुणस्थान की स्थिति है, अधिक नहीं। इसी को दूसरे शब्दों में शैलेशी अवस्था भी कहते हैं। तत्पश्चात् आत्मा सिद्धगति को प्राप्त कर लेता है।
जो आठ कर्मों से सर्वथा विमुक्त हो गए हैं, उन्हें सिद्ध कहते हैं, अजर। अमर, अविनाशी, परब्रह्म, परमात्मा, सिद्ध, ये उनके पर्यायवाची नाम हैं। वे सिद्ध, राशिरूप में सब एक हैं और संख्या में अनन्त हैं। उन में जो केवलज्ञान है, उसे सिद्ध केवलज्ञान कहते हैं। जिस शब्द की व्युत्पत्ति वृत्तिकार ने निम्न प्रकार से की है, जैसे कि षिधू संराद्धौ, सिध्यति स्म सिद्धः, यो येन गुणेन परिनिष्ठितो न पुनः साधनीयः स सिद्ध उच्चते, यथा सिद्ध ओदनः स च कर्मसिद्धादिभेदादनेकविधः, अथवा सितं-बद्धं ध्मातं-भस्मीकृतमष्टप्रकारं कर्म येन स सिद्धः, पृषोदरादय इति रूपसिद्धिः सकलकर्मविनिर्मुक्तोमुक्तावस्थामुपगत इत्यर्थः।" इस का भाव यह है कि जिन आत्माओं ने आठ प्रकार के कर्मों को भस्मीभूत कर दिया है अथवा जो सकल कर्मों से विनिर्मुक्त हो गए हैं, उन्हें सिद्ध कहते हैं। यद्यपि सिद्ध शब्द अनेक अर्थों में व्यवहृत होता है, जैसे कि कर्मसिद्ध, शिल्पसिद्ध, विद्यासिद्ध, मंत्रसिद्ध, योगसिद्ध, आगमसिद्ध, अर्थसिद्ध, यात्रासिद्ध, तप:सिद्ध, कर्मक्षय सिद्ध, तदपि प्रसंगानुसार यहां कर्मक्षयसिद्ध का ही अधिकार है। उक्त प्रकार के सिद्धों का निम्नलिखित गाथा में वर्णन किया है, जैसे कि
"कम्मे सिप्पे य विज्जाए, मते जोगे य आगमे।
अत्थ जत्ता अभिप्पाए, तवे कम्मक्खए इय ॥" भवस्थ केवलज्ञानी अरिहंत, आप्त, जीवन्मुक्त कहलाते हैं और सिद्ध केवलज्ञानी को पारंगत और विदेहमुक्त कहा जाता है। ___ भारतीय दर्शनों में मीमांसकों का कहना है कि जीव अल्पज्ञ है और अल्पज्ञ ही रहेगा, वह कभी भी सर्वज्ञ नहीं बन सकता और न सर्वज्ञ-सर्वदर्शी विशेषण युक्त कोई ईश्वर ही है। पातंजल योगदर्शन, न्याय और वैशेषिक दर्शन ये सर्वज्ञवाद को मानते हैं, किन्तु साथ ही आत्मा के विशिष्ट गुणों से रहित होने को ही निर्वाण या मुक्त होना भी मानते हैं। इसी प्रकार सांख्यदर्शन और बौद्ध दर्शन का अभिमत है। वे मुक्तावस्था में सर्वज्ञता को स्वीकार नहीं करते और न अल्पज्ञता को। उनकी इस विषय में यह दोषापत्ति है कि ज्ञान से राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं, जब आत्मा में ज्ञान सर्वथा लुप्त हो जाता है तब उस में राग-द्वेष उत्पन्न नहीं होते। यही मान्यता बौद्धों की है, किन्तु जैन दर्शन की यह मान्यता है कि केवल ज्ञान सादि-अनन्त है, वह एक समय विशिष्ट संयम और तप की प्रक्रिया से आत्मा में प्रकट होता है, फिर कभी भी नष्ट नहीं होता। केवलज्ञान राग-द्वेष, काम-क्रोध, मद-मोह का और मल-आवरण-विक्षेप का जनक नहीं है बल्कि इन सब के नष्ट होने पर ही केवलज्ञान उत्पन्न होता है। वह
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