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के विषयान्तर्गत हैं। इस गाथा में गुणपच्चइयं तथा चरित्तवओ ये दो पद महत्त्वपूर्ण हैं। अवधिज्ञान जैसे भवप्रत्ययिक और गुण-प्रत्ययिक दो प्रकार का होता है वैसे मन:पर्याय ज्ञान भव प्रत्ययिक नहीं है, केवल गुणप्रत्ययिक ही है। अवधिज्ञान तो श्रावक और प्रमत्त-संयत को भी हो जाता है, किन्तु मनःपर्यवज्ञान चारित्रवान को ही प्राप्त हो सकता है। जो ऋद्धि प्राप्त अप्रमत्त-संयत हैं, वस्तुतः एकान्त चारित्र से उन्हीं का जीवन ओत-प्रोत होता है, अत: गाथा में चरित्तवओ शब्द का प्रयोग किया है। इस विषय में वृत्तिकार के शब्द निम्नलिखित हैं "गुणाः क्षान्त्यादयस्ते प्रत्ययः कारणं यस्य तद्गुणप्रत्ययः चारित्रवतोऽप्रमत्तसंयतस्य" इससे साधक को साधना में अग्रसर होने के लिए मधुर प्रेरणा मिलती है। इस प्रकार मनः पर्यवज्ञान का तथा विकलादेश प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय समाप्त हुआ ।। सूत्र 18 ।।
(केवल ज्ञान)
मूलम्-से किं तं केवलनाणं ? केवलनाणं दुविहं पण्णत्तं, तं जहाभवत्थ-केवलनाणं च, सिद्धकेवलनाणं च।
से किं तं भवत्थ-केवलनाणं? भवत्थकेवलनाणं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-सजोगिभवत्थ-केवलनाणं च, अजोगिभवत्थ- केवलनाणं च।
से किं तं सजोगिभवत्थ-केवलनाणं? सजोगिभवत्थ- केवलनाणं दुविहं पण्णत्तं, तंजहा-पढमसमय-सजोगिभवत्थ- केवलनाणंच, अपढमसमयसजोगिभवत्थ-केवलनाणं च।अहवा चरमसमय-सजोगिभवत्थ-केवलनाणं च, अचरमसमय-सजोगि-भवत्थ-केवलनाणं च। से त्तं सजोगिभवत्थकेवलनाणं
से किं तं अजोगिभवत्थ-केवलनाणं? अजोगिभवत्थ- केवलनाणं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-पढमसमय-अजोगिभवत्थ- केवलनाणं च, अपढमसमय - अजोगिभवत्थ-केवलनाणं च । अहवा-चरमसमयअजोगिभवत्थ-केवलनाणंच, अचरमसमय-अजोगिभवत्थ-केवलनाणंच। से त्तं अजोगिभवत्थ-केवलनाणं, से त्तं भवत्थ-केवलनाणं ॥ सूत्र १९ ॥
छाया-अथ किं तत् केवलज्ञानम् ? केवलज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-भवस्थकेवलज्ञानञ्च, सिद्ध-केवलज्ञानञ्च।
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