________________
(3) अंवधिज्ञान के स्वामी चारों गतियों में पाए जाते हैं, किन्तु मन:पर्यव के स्वामी लब्धिसम्पन्न संयंत ही हो सकते हैं, अन्य नहीं।
(4) अवधिज्ञान का विषय कुछ पर्याय सहित रूपी द्रव्य हैं, जब कि मनःपर्यव ज्ञान का विषय उसकी अपेक्षा अनन्तवां भाग है।
(5) अवधिज्ञान मिथ्यात्व के उदय से विभंगज्ञान के रूप में परिणत हो सकता है, जब कि मन:पर्यव ज्ञान के होते हुए मिथ्यात्व का उदय होता ही नहीं अर्थात् मनःपर्यव ज्ञान का विपक्षी कोई अज्ञान नहीं है। - (6) अवधिज्ञान परभव में भी साथ जा सकता है, जब कि मन:पर्यव ज्ञान इहभविक ही होता है, जैसे संयम और तप।
मन:पर्यवज्ञान का उपसंहार मूलम्- मणपज्जवनाणं पुण, जणमणपरिचिंतिअत्थपागडणं ।
माणुसखित्तनिबद्धं गुणपच्चइअं चरित्तवओ ॥ ६५ ॥
से त्तं मणपज्जवनाणं ॥ सूत्र १८ ॥ छाया- मनःपर्यवज्ञानं पुनर्जनमनपरिचिन्तितार्थप्रकटनम् । ___ मानुषक्षेत्रनिबद्ध, गुणप्रत्ययिकं चारित्रवतः ॥ ६५ ॥
तदेन्मनःपर्यवज्ञानम् ॥ सूत्र १८ ॥ पदार्थ-पुण-पुनः, मणपज्जवनाणं-मनःपर्यवज्ञान, माणुसखित्तनिबद्धं-मनुष्य क्षेत्र में रहें हुए, जण-मणपरिचिंतिअत्थपागडणं-प्राणियों के मन में परिचिन्तित अर्थ को प्रकट करने वाला है। तथा, गुणपच्चइअं-क्षान्ति आदि इसकी प्राप्ति के कारण हैं, और यह, चरित्तवओ-चारित्रयुक्त अप्रमत्त संयत को ही होता है। सेत्तं-इस प्रकार यह, मणपज्जवनाणंदेश प्रत्यक्ष मनःपर्यवज्ञान का विषय है। - भावार्थ-पुनः मन:पर्यवज्ञान मनुष्य क्षेत्र में रहे हुए प्राणियों के मन में परिचिन्तित अर्थ को प्रकट करने वाला है। तथा क्षान्ति आदि इस ज्ञान की प्राप्ति के कारण हैं और यह चारित्रयुक्त अप्रमत्त संयत को ही होता है। इस प्रकार यह देशप्रत्यक्ष मनःपर्यवज्ञान का विषय है ॥ सूत्र १८ ॥ ____टीका- इस गाथा में उक्त विषय का उपसंहार किया गया है, प्रस्तुत गाथा में जन शब्द का प्रयोग किया है, जायत इति जनः-इस व्युत्पत्ति के अनुसार न केवल जन का अर्थ मनुष्य ही है, बल्कि समनस्क जीव को भी जन कहते हैं। मनुष्यलोक जो कि दो समुद्र और अढाई द्वीप तक ही सीमित है। उस मर्यादित क्षेत्र में यावन्मात्र मनुष्य, तिर्यंच, संज्ञी पंचेन्द्रिय तथा देव हैं, उनके मन में जो सामान्य और विशेष संकल्प-विकल्प उठते हैं, वे सब मन:पर्यवज्ञान
*247*