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________________ है, जबकि दूसरा मन: पर्यवज्ञान से, यही दोनों में अन्तर है। अप्रतिपाति अवधिज्ञानी तथा परमावधिज्ञानी भी सलेश्यी मानसिक भावों को यत्किंचित् प्रत्यक्ष कर सकता है। ऋजुमति और विपुलमति में अंतर जैसे दो व्यक्तियों ने एम.ए. की परीक्षा दी और दोनों उत्तीर्ण हो गए। विषय दोनों का एक ही था, उनमें से एक परीक्षा में सर्वप्रथम रहा और दूसरा द्वितीय श्रेणी में, इनमें दूसरे की अपेक्षा पहले को अधिक ज्ञान है, दूसरे को कुछ न्यून। बस इसी तरह ऋजुमति की अपेक्षा से विपुलमति का ज्ञान विशुद्धतर, अधिकतर एवं विपुलतर होता है । जैसे जलते हुए पंचास केण्डल पावर बल्ब की अपेक्षा सौ केण्डलपावर का प्रकाश वितिमिरतर होता है, वैसे ही विपुलमति मन:पर्यवज्ञान, ऋजुमति की अपेक्षा वितिमिरतर होता है । वितिमिरतम ज्ञानप्रकाश तो केवलज्ञान में ही होता है। ऋजुमति कदाचित् प्रतिपाति भी हो सकता है, किन्तु विपुलमति को उसी भव में केवलज्ञान हो जाता है। ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति ज्ञानी सूक्ष्मतर विशेष अधिक और स्पष्ट रूप से जानता है। क्षयोपशमजन्य कोई भी ज्ञान जब अपने आप में पूर्ण हो जाता है, तब निश्चय ही उसे उस भव में केवलज्ञान हो जाता है, अपूर्णता में भजना है - हो और न भी हो । जाणइ पासइ जब मन:पर्यव ज्ञान का कोई दर्शन नहीं है, तब सूत्रकार ने " पासइ " क्रिया का प्रयोग क्यों किया है ? इसका समाधान यह है- जब ज्ञानी उक्त ज्ञान में उपयोग लगाता है, तब साकार उपयोग ही होता है, अनाकार उपयोग नहीं। उस साकार के हीं यहां दो भेद किए गए हैं- सामान्य और विशेष, ये ही दोनों भेद ऋजुमति के भी होते हैं, इसी प्रकार विपुलमति के भी दो भेद होते हैं। यहां सामान्य का अर्थ विशिष्ट साकार उपयोग और विशेष का अर्थ है, विशिष्टतर साकार उपयोग, ऐसा समझना चाहिए। मनः पर्यवज्ञान से, जानने और देखने रूप दोनों क्रियाएं होती हैं।' ऋजुमति को दर्शनोपयोग और विपुलमति को ज्ञानोपयोग समझना भी भूल है। क्योंकि जिसे विपुलमतिज्ञान हो रहा है, उसे ऋजुमति ज्ञान भी हो, ऐसा होना नितान्त असंभव है। क्योंकि इन दोनों के स्वामी एक ही नहीं, दो भिन्न-भिन्न स्वामी होते हैं। अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान में अन्तर (1) अवधिज्ञान की अपेक्षा मनः पर्यवज्ञान अधिक विशुद्ध होता है। (2) अवधिज्ञान का विषय क्षेत्र तीन लोक है, जब कि मनः पर्यवज्ञान का विषय केवल पर्याप्त संज्ञी जीवों के मानसिक संकल्प विकल्प ही हैं। 1. देखें प्रज्ञापना सूत्र का पश्यत्ता पद । 246
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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