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अथवा जैसे सैनिक दूर रहे हुए अपने साथियों को दिन में झण्डियों की विशेष प्रक्रिया और रात की सर्चेलाइट की प्रक्रिया से अपने भावों को समझाते और स्वयं भी समझते हैं, किन्तु अशिक्षित व्यक्ति झण्डों को और सर्चलाइट को देख तो सकता है तथा उनकी प्रक्रियाओं को भी देख सकता है। परन्तु उनके द्वारा दूसरे के मनोगत भावों को नहीं समझ सकता। इसी प्रकार अवधिज्ञानी मन को तथा मन की पर्यायों को प्रत्यक्ष तो कर सकता है, किन्तु मनोगत द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का प्रत्यक्ष नहीं कर सकता, जब कि मनः पर्यवज्ञानी का वह विशेष विषय है। यदि उसका यह विशेष विषय न होता तो मनः पर्यवज्ञान की अलग गणना करना ही व्यर्थ है।
शंका- ज्ञान तो अरूपी है, अमूर्त है जब कि मनः पर्यव ज्ञान का विषय रूपी है, वह मनोगत भावों को कैसे समझ सकता है? और उन भावों का प्रत्यक्ष कैसे कर सकता है? जब कि भाव अरूपी हैं- इसका समाधान यह है कि क्षायोपशमिक भाव में जो ज्ञान होता है, वह एकान्त अरूपी नहीं होता, कथंचित् रूपी भी होता है। एकान्त अरूपी ज्ञान क्षायिक भाव में होता है, जैसे औदयिक भाव में जीव कथंचित् रूपी होता है, वैसे ही क्षायोपशमिक ज्ञान भी कथंचित् रूपी होता है, सर्वथा अरूपी नहीं। जैसे विशेष पठित व्यक्ति भाषा को सुनकर कहने वाले के भावों को और पुस्तकगत अक्षरों को पढ़कर लेखक के भावों को समझता है, वैसे ही अन्य-अन्य निमित्तों से 'भाव समझे जा सकते हैं। क्योंकि क्षायोपशमिक भाव सर्वथा अरूपी नहीं होता ।
जैसे कोई व्यक्ति स्वप्न देख रहा है, उसमें क्या दृश्य देख रहा है, किससे क्या बातें कर रहा है, क्या खा रहा है और क्या सूंघ रहा है, उस स्वप्न में हर्षान्वित हो रहा है या शोकाकुल, उस सुप्त व्यक्ति की जैसी अनुभूति हो रही है, उसे यथातथ्य मनः पर्यवज्ञानी प्रत्यक्ष प्रमाण से जानते हैं। जैसे स्वप्न एकान्त अरूपी नहीं है, वैसे ही क्षायोपशमिक भाव में मनोगत भाव भी अरूपी नहीं होते। जैसे स्वप्न में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव साकार हो उठते हैं, वैसे ही चिन्तन-मनन-निदिध्यासन के समय मन में द्रव्य, क्षेत्र-काल और भाव साकार हो उठते हैं। इससे मन:पर्यव ज्ञानी को जानने-देखने में सुविधा हो जाती है। जो मनोवैज्ञानिक शिक्षा आधार पर दूसरे के भावों को समझते हैं, वह मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का ही विषय है, मनः पर्यव ज्ञान का नहीं, क्योंकि मनोवैज्ञानिक को पहले यत् किंचित् शिक्षा लेनी पड़ती है, उसके आधार पर वह भी सन्मुख स्थित व्यक्ति के यत् किंचित् मनोगत भावों को ही जानता
दूर देश में रहे हुए प्राणी क्या संकल्प-विकल्प कर रहे हैं, इसका ज्ञान, मानस - शास्त्री को .नहीं हो सकता, किन्तु मनः पर्यव - ज्ञानी दूर, निकट, दीवार, पर्वत कुछ भी हो, मन की पर्यायों को जान सकता है, वह भी अनुमान से ही नहीं अपितु प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा। जबकि मनोवैज्ञानिक अनुमान के द्वारा जानता है, न कि प्रत्यक्ष प्रमाण से । एक श्रुत ज्ञान से काम लेता
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