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________________ मन: पर्यवज्ञान उत्पन्न होकर लुप्त होने का प्रसंग आए तो वही ज्ञान पुनः अन्तर्मुहूर्त में उत्पन्न हो सकता है। इससे सिद्ध होता है कि मनःपर्यवज्ञान के उत्पन्न और लुप्त होने का प्रसंग एक ही भव में एक बार भी आ सकता है और अनेक बार भी। यह कथन ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान के विषय में समझना चाहिए। विपुलमति के विषय में नहीं। जिस प्रकार यहाँ मन:पर्यवज्ञान-विषयक प्रश्नोत्तर हैं, ठीक उसी प्रकार आहारक शरीर के विषय में भी प्रश्नोत्तर लिखे गए हैं। जिज्ञासुओं की जानकारी के लिए यहां सारा पाठ न देकर सिर्फ भगवान का अन्तिम उत्तर ही दिया जा रहा है, जैसे कि-"गोयमा! इड्ढिपत्तप्पमत्त-संजय-सम्मदिट्ठि-पज्जत्त-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतिय-मणुसस्स आहारग सरीरे, णो अणिड्ढिपत्त प्पमत्तसंजयसम्मदिट्ठि-पज्जत्त-संखेज्जवासाउय कम्मभूमिय- गब्भवक्कंतिय-मणुसस्स आहारग सरीरे।"आहारक शरीर ऋद्धिप्राप्त प्रमत्त संयत को ही हो सकता है, किन्तु अप्रमत्त संयत को आहारक लब्धि नहीं होती, अपितु मन:पर्यवज्ञान लब्धिप्राप्त अप्रमत्त संयत को ही होता है, प्रमत्त को नहीं। आहारक लब्धि की उपलब्धि छठे गुणस्थान में होती है, उस शरीर का उद्भव और प्रयोग प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही होता है। उपर्युक्त नौ शर्ते चार भागों में विभक्त हो जाती हैं, जैसे कि पर्याप्तक, गर्भज और मनुष्य ये तीन द्रव्य में, कर्मभूमिज यह क्षेत्र में, संख्यात वर्षायुष्क यह काल में और सम्यग्दृष्टि-संयत-अप्रमत्त-लब्धिप्राप्त ये चार भाव में अन्तर्भूत हो जाते हैं। इस प्रकार जब द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की सामग्री पूर्णतया प्राप्त होती है, तब मन:पर्यवज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होकर मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होता है, अन्यथा नहीं। ... . मन:पर्यायज्ञान के भेद मूलम्-तं च दुविहं उप्पज्जइ, तं जहा-उज्जुमई य विउलमई य, तं समासओ चउब्विहं पन्नत्तं, तं जहा-दव्वओ, खित्तओ, कालओ, भावओ। - तत्थ दव्वओ णं-उन्जुमई अणते अणंतपएसिए खंधो जाणइ, पासइ, ते चेव विउलमई अब्भहियतराए, विउलतराए, विसुद्धतराए, वितिमिरतराए जाणइ, पासइ। ... खित्तओणं-उज्जुमई य जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेट्ठिल्ले खुड्डगपयरे, उड्ढे जाव जोइसस्स उवरिमतले, तिरियं जाव अंतोमणुस्सखित्ते अड्ढाइज्जेसु 1. देखिए प्रज्ञापना सूत्र, 21वाँ पद । - * 237* -
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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