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लब्धियाँ औदियक भाव से होती हैं और कुछ क्षयोपशमभाव से तथा कुछ क्षायिकभाव से भी।
जंघाचारण लब्धिसम्पन्न मुनिवरों को विशेष जिज्ञासा से जब कहीं यथाशीघ्र जाना होता है, तब उस लब्धि का प्रयोग करते हैं। वे बिना वायुयान या राकेट के आकाश में गमन करते हैं, अपनी लब्धि से रुचकवर द्वीप तक ही जा सकते हैं। और विद्याचारण लब्धि वाले मुनिवर अधिक से अधिक नन्दीश्वर द्वीप पर्यन्त ही जा सकते हैं। इनका पूर्ण विवरण भगवती सूत्र श. 20 से जानना चाहिए। एतद् विषयक वर्णन वृत्तिकार ने निम्नलिखित पाँच गाथाओं में किया है, जैसे कि
"अइसय-चरणसमत्था, जंघाविज्जाहि चारणा मणओ। जंघाहि जाइ पढमो, नीसं काउं रविकरेऽवि ।।१।। एगुप्पाएण गओ रुयगवरम्मि उ तओ पडिनियत्तो। बिइएणं नंदिस्सरमिह, तओ एइ तइएणं ।। २ ।। पढमेण पण्डगवणं, बिइउप्पाएण नंदणं एइ । तइउप्पाएण तओ, इह जंघाचारणो एइ ।। ३ ।। पढमेण माणुसोत्तरनगं, स नंदिस्सरं तु बिइएणं । एइ तओ, तइएणं, कय चेइयवन्दणो इहयं ।। ४ ।। पढमेण नन्दणवणे, बिइउप्पाएण पण्डगवणम्मि ।
एइ इह तइएणं, जो विजाचारणो होइ ।। ५ ।। जिन अप्रमत्त संयतों को विशिष्ट लब्धियाँ प्राप्त हों, उन्हें ऋद्धिमान् कहते हैं। इनसे विपरीत जो अप्रमत्त-संयत हैं, उन्हें अनृद्धिप्राप्त कहते हैं। अनृद्धिप्राप्त अप्रमत्तसंयत जीवन के किसी भी क्षण में संयम से विचलित हो सकते हैं किन्तु ऋद्धिप्राप्त अप्रमत्तसंयत का जीवन के किसी भी क्षण में संयम से स्खलित होना असम्भव ही नहीं, नितान्त असम्भव है, अतः ऋद्धिमान का जीवन विश्व में महत्त्वपूर्ण होता है, इसी कारण उन्हें मनपर्यवज्ञान उत्पन्न होता है। ऋद्धिप्राप्त अप्रमत्त संयत भी दो भागों में विभाजित हैं, 1. विशिष्ट ऋद्धिप्राप्त और 2. सामान्य ऋद्धिप्राप्त। इनमें पहली कोटि के मुनिवर को प्रायः विपुलमति मन:पर्यवज्ञान उत्पन्न होता है और ऋजुमति भी, किन्तु दूसरी कोटि के संयत को प्रायः ऋजुमति मनःपर्यव ज्ञान होता है और किसी को विपुलमति भी। विपुलमति मनःपर्यवज्ञान नियमेन अप्रतिपाति होता है, किन्तु ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान के लिए विकल्प है। इसकी पुष्टि सर्वजीवाभिगम की आठवीं प्रतिपत्ति से होती है। उसमें लिखा है कि मन:पर्यवज्ञान का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अपार्द्धपुद्गलपरावर्तन प्रमाण। यदि किसी ऋद्धिप्राप्त मुनिवर के जीवन में
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