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________________ (मन:पर्यवज्ञान मूलम्-से किंतंमणपज्जवनाणं? मणपज्जवनाणे णं भंते! किंमणुस्साणं उप्पज्जइ अमणुस्साणं ? गोयमा ! मणुस्साणं, नो अमणुस्साणं । छाया-अथ किं तन्मनःपर्यवज्ञानं? मनःपर्यवज्ञानं भदन्त ! किं मनुष्याणामुत्पद्यते, अमनुष्याणां (वा)? गौतम ! मनुष्याणां, नो अमनुष्याणाम्। पदार्थ-से किं तं-अथ वह, मणपज्जवनाणं-मनःपर्यवज्ञान कितने प्रकार का है ?, भंते-भगवन् !, मणपज्जवनाणे णं-मनःपर्यवज्ञान, णं-वाक्यालंकार में है, किं-क्या, मणुस्साणं-मनुष्यों को, उप्पज्जइ-उत्पन्न होता है या, अमणुस्साणं-अमनुष्यों को?, गोयमा-हे गौतम !, मणुस्साणं-मनुष्यों को होता है, णो अमणुस्साणं-अमनुष्यों को नहीं। भावार्थ-वह मनःपर्यायज्ञान कितने प्रकार का है? हे भगवन् ! वह मनःपर्यायज्ञान क्या मनुष्यों को उत्पन्न होता है अथवा अमनुष्यों-देव, नारकी और तिर्यंचों को? __ भगवान् बोले-गौतम ! वह मनःपर्यवज्ञान मनुष्यों को ही उत्पन्न होता है, अमनुष्यों को नहीं। टीका-अवधिज्ञान के पश्चात् अब सूत्रकार मन:पर्यवज्ञान का अधिकारी कौन हो सकता है, इसका विवेचन प्रश्न और उत्तर के रूप में करते हैं। इस विषय में जो प्रश्नोसर गौतम और महावीर स्वामी के मध्य में हुए हैं, वही प्रश्नोत्तर शैली देववाचक जी ने विषय को सुस्पष्ट और सुगम बनाने के लिए अपनायी है। मनःपर्यवज्ञान कितने प्रकार का है, इसका उत्तर तो आगे दिया जायगा। उस ज्ञान का अधिकारी कौन हो सकता है, मनुष्य या देव आदि? भगवान उत्तर देते हैं-गौतम ! मनुष्य को ही मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न हो सकता है, मनुष्येतर देव आदि को नहीं। अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि चतुर्दशपूर्वधर, सर्वाक्षरों के सन्निपाति, सम्भिन्नश्रोत-संपन्न, प्रवचन के प्रणेता, 'जिन नहीं पर जिन सदृश' गणधरों में प्रमुख गौतम स्वामी को यह शंका कैसे उत्पन्न हो सकती है कि मन:पर्यवज्ञान किसको उत्पन्न होता है? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि प्रश्न करने के अनेक कारण होते हैं-विवाद खड़ा करने के लिए, किसी ज्ञानी की परीक्षा के लिए, अपना पाण्डित्य सिद्ध करने के लिए, इत्यादि कारण उनके पूछने के नहीं हो सकते थे, क्योंकि गौतम स्वामी निरभिमानी एवं विनीत थे। हां, उनके भाव ये हो सकते हैं कि अपने जाने हुए विषय को स्पष्ट करने के लिए, नया ज्ञान सीखने के लिए, अन्य लोगों की शंका समाधान करने के लिए, दूसरों को ज्ञान कराने के लिए, उपस्थित शिष्यों का संशय दूर करने के लिए तथा जिनके मस्तिष्क में अभी यह सूझ-बूझ ही नहीं *222 * -
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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