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________________ छाया - २. नैरयिक- देवतीर्थंकराश्च, अवधेबाह्या भवन्ति । पश्यन्ति सर्वतः खलु, शेषा देशेन पश्यन्ति ॥ ६४ ॥ तदेतदवधिज्ञानप्रत्यक्षम् । पदार्थ - नेरइय- नारकी, देव-देवता, य-और, तित्थंकरा - तीर्थंकर, ओहिस्स-अवधिज्ञान के, अबाहिरा - अबाह्य, हुंति - होते हैं और ये, खलु - निश्चय ही, सव्वओ - सब ओर, पासंति - देखते हैं। सेसा - शेष, देसेण- देश से, पासंति - देखते हैं। से त्तं - यही वह, ओहिनाण-पच्चक्खं-अवधिज्ञान प्रत्यक्ष है। भावार्थ- नारकी, देव और तीर्थंकर अवधिज्ञान के अबाह्य अर्थात् अवधिज्ञान से युक्त होते हैं और सब दिशा - विदिशा में देखते हैं, शेष अर्थात् मनुष्य और तिर्यञ्च देश से देखते हैं। इस प्रकार यह अवधिज्ञान प्रत्यक्ष का वर्णन सम्पूर्ण हुआ। टीका- - इस गाथा में अवधिज्ञान के विषय का उपसंहार करते हुए शेष प्रतिपादनीय विषय का उल्लेख किया गया है। नैरयिक, देव और तीर्थंकर इनको निश्चय ही अवधिज्ञान होता है, इसलिए सूत्रकर्त्ता ने ओहिस्सऽबाहिरा हुति - 'ये अवधिज्ञान के अबाह्य होते हैं' का कथन किया है। "नैरयिक- देव तीर्थंकरा अवधेरवधिज्ञानस्याबाह्य एव भवन्ति, बाह्या न कदाचनापि भवन्तीति भावः । ". दूसरी विशेषता इनमें यह है कि उपर्युक्त तीनों को जो अवधिज्ञान है, वह सर्व दिशाओं और विदिशाओं का विषयक होता है । शेष, मनुष्य और तिर्यंच देश से प्रत्यक्ष करते हैं। पासंति सव्वओ खलु इस पद से ओहिस्सबाहिरा हुंति इस पद की सार्थकता हो जाती है। यह कोई नियम नहीं है कि अबाह्य अवधिज्ञानी सब ओर से ही देखते हैं, केवल उक्त तीन के लिए ही ऐसा नियम है। शेष मनुष्य और तिर्यंच यदि अवधि ज्ञान से अबाह्य हों, तो वे देश से देखते हैं, सर्व से नहीं । देव और नारकी अवधिज्ञान से आजीवन अबाह्य रहते हैं, किन्तु तीर्थंकर छद्मस्थकाल पर्यन्त ही अवधिज्ञान से अबाह्य होते हैं। जो नियमेन अवधिज्ञान वाले हैं, उन्हें अबाह्य कहते हैं । और जो अनियत अवधिज्ञान संपन्न हैं, उन्हें बाह्य कहते हैं। तीर्थंकर का अवधिज्ञान भवप्रत्ययिक नहीं होता, अपितु परभव से समन्वित आगमन होता है। जिस आत्मा ने तीर्थंकर बनना हो, वह यदि 26 देवलोकों और 9 लोकान्तिक देवलोकों से च्यवकर आ रहा हो, तो वह विपुल मात्रा में अवधिज्ञान को लेकर आता है। वह यदि पहले, दूसरे और तीसरे नरक से आ रहा हो, तो अपर्याप्त अवस्था में अवधिज्ञान उतना ही होता है, जितना कि तत्रस्थ नारकी को, किन्तु पर्याप्त अवस्था में वह अवधिज्ञान युगपत् महान् बन जाता है। तीर्थंकर का अवधिज्ञान अप्रतिपाति होता है। इस प्रकार, अवधिज्ञान का निरूपण समाप्त हुआ। * 221*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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