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________________ चारित्र की विशुद्धि का होना इसमें अनिवार्य है। जैनधर्म बाह्य क्रिया-काण्ड को उतना महत्त्व नहीं देता, जितना कि परिणामों की विशुद्धि पर बल देता है। जहां भावों की विशुद्धि है, वहां बाह्य क्रिया भी उचित रीति से हो सकती है। जहां निश्चय शुद्ध है, वहां व्यवहार भी शुद्ध होता है, किन्तु निश्चय के बिना व्यवहार भी केवल ढोंग मात्र है। यदि परिणामों में विशुद्धि नहीं है, तो बाह्य क्रिया-काण्ड चाहे कितना भी क्यों न किया जाए, वह ज्ञानियों की दृष्टि में अवस्तु है। अध्यवसायों में ज्यों-ज्यों विशुद्धि बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों आवरण का क्षयोपशम भी बढ़ता ही जाता है और तदनुरूप अवधिज्ञान भी चन्द्रकला की तरह प्रतिक्षण विकसित ही होता जाता है। अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र मूलम्-१. जावइआ तिसमया-हारगस्स, सहमस्स पणगजीवस्स । ओगाहणा जहन्ना, ओहीखित्तं जहन्नं तु ॥ ५५ ॥ छाया- १. यावती त्रिसमया-ऽऽहारकस्य, सूक्ष्मस्य पनकजीवस्य । अक्गाहना जघन्या, अवधिक्षेत्रं जघन्यं तु ॥ ५५ ॥ • पदार्थ-ति-तीन, समयाहारगस्स-समय वाले आहारक, सुहुमस्स-सूक्ष्म, पणगजीवस्स-सूक्ष्म कर्मोदयवर्ती वनस्पति विशेष निगोदीय जीव की, जावइआ-जितनी, जहन्नाजघन्य, ओगाहणा-अवगाहना होती है, एतावत्-प्रमाण, ओही-अवधिज्ञान का, जहन्नं तु-जघन्य, खित्तं-क्षेत्र है। 'तु' एवकार अर्थ में है। भावार्थ-तीन समय के आहारक सूक्ष्म-निगोदीय जीव की जितनी जघन्य-कम से कम अवगाहना-शरीर की लम्बाई होती है, उतने परिमाण में जघन्य-कम से कम अवधिज्ञान का क्षेत्र है। टीका-अवधिज्ञान का जघन्य विषय कितना हो सकता है, इसका समाधान सूत्रकार ने स्वयं किया है। सूक्ष्म पनक जीव का शरीर तीन समय आहार लेने पर जितना क्षेत्र अवगाहित करता है, उतना जघन्य अवधिज्ञान का विषय क्षेत्र है। 'पनक' शब्द जैन परिभाषा में निगोद (नीलन-फूलन) के लिए रूढ है। निगोद दो प्रकार की होती है। 1. सूक्ष्मनिगोद और 2. बादर निगोद। प्रस्तुत सूत्र में सुहुमस्स पणगजीवस्स-सूक्ष्म निगोद ग्रहण की है, बादर नहीं। निगोद उसे कहते हैं जो अनन्त जीवों का पिण्ड हो अर्थात् वहां एक शरीर में अनन्त जीव रहते हैं, वह शरीर भी इतना सूक्ष्म होता है, जिसे पैनी दृष्टि से भी नहीं देख सकते, वे किसी के मारे से नहीं मरते। उस सूक्ष्म-निगोद के एक शरीर में रहते हुए, वे अनन्त * 203*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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