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यह पहले लिखा जा चुका है कि अवधिज्ञान गुण प्रतिपन्न अनगार व अन्य आत्मा को भी हो सकता है, किन्तु शीलादि गुण होने पर भी स्वाध्याय, ध्यान का होना अनिवार्य है। कारण कि जो आत्मा ध्यानस्थ तथा समाधियुक्त होता है, वह जितना क्षयोपशम करता है, उतना ही अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है, अतः साधक को शील आदि गुण अवश्य ग्रहण करने चाहिएं ।। सूत्र 11 ।।
- वर्द्धमान अवधिज्ञान मूलम्-से किं तं वड्ढमाणयं ओहिनाणं ? वड्ढमाणयं ओहिनाणं, पसत्थेसु अज्झवसायट्ठाणेसु वट्टमाणस्स वड्ढमाणचरित्तस्स, विसुज्झमाणस्स विसुज्झमाणचरित्तस्स सव्वओ समंता ओही वड्ढइ।
छाया-अथ किं तद्वर्द्धमानकमवधिज्ञानं ? वर्द्धमानकमवधिज्ञान-प्रशस्तेष्वध्यवसायस्थानेषु वर्तमानस्य वर्द्धमानचारित्रस्य, विशुद्धमानस्य विशुद्धमानचारित्रस्य सर्वतः समन्तादवधिर्वर्धते।
पदार्थ से किं तं वड्ढमाणयं ओहिनाणं?-उस वर्द्धमान अवधिज्ञान का क्या स्वरूप है ?, वड्ढमाणयं-वर्द्धमान, ओहिनाणं-अवधिज्ञान, पसत्थेसु-प्रशस्त, अज्झवसायट्ठाणेसु-अध्यवसाय स्थानों में, वट्टमाणस्स-वर्तते हुए के, वड्ढमाणचरित्तस्स-वृद्धि पाते हुए चारित्र के, विसुज्झमाणस्स-विशुद्ध्यमान चारित्र के अर्थात् आवरणक-मलकलंक से रहित, विसुज्झमाणचरित्तस्स-चारित्र के विशुद्ध्यमान होने पर उस व्यक्ति का, सव्वओसब दिशा और विदिशाओं में, समंता-सर्व प्रकार से, ओही- अवधिज्ञान, वड्ढइ-वृद्धि पाता है।
भावार्थ-शिष्य ने प्रश्न किया-गुरुदेव ! वर्द्धमानक अवधिज्ञान किस प्रकार का है ? गुरुदेव बोले-वत्स ! वर्द्धमानक अवधिज्ञान-अध्यवसायों-विचारों के प्रशस्त होने पर तथा उनके विशुद्ध होने पर और पर्यायों की अपेक्षा चारित्र की वृद्धि होने पर तथा चारित्र के विशुद्ध्यमान होने अर्थात् आवरणक-मल-कलंक से रहित होने पर आत्मा का जो ज्ञान चारों ओर दिशा और विदिशाओं में बढ़ता है, वही वर्द्धमानक अवधिज्ञान
___टीका-इस सूत्र में वर्द्धमानक अवधिज्ञान का उल्लेख किया गया है। साधकों के परिणामों में उतार-चढ़ाव होता ही रहता है। जिस अवधिज्ञानी के आत्म-परिणाम विशुद्ध से विशुद्धतर हो रहे हैं, उसका अवधिज्ञान भी प्रतिक्षण उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है, कारण की विशुद्धि के साथ-साथ कार्य की विशुद्धि का होना भी अनिवार्य है। वर्द्धमानक अवधिज्ञान चतुर्थ, पांचवें तथा छठे गुणस्थान के स्वामी को भी हो सकता है। क्योंकि परिणामों की तथा
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