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________________ जीव अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त की आयु वाले होते हैं। कुछ तो अर्याप्त अवस्था में ही मर जाते हैं और कुछ पर्याप्त होने पर। ___असंख्यात समयों की एक आवलिका होती है। दो सौ छप्पन 256 आवलिकाओं का एक खुड्डाग भव होता है। यदि निगोद के जीव अपर्याप्त अवस्था में ही निरन्तर काल करते रहें तो एक मुहूर्त में वे 65536 बार जन्म-मरण करते हैं। इस क्रिया से जन्म-मरण करते हुए, वहां उन्हें असंख्यात काल बीत जाता है। कल्पना कीजिए, अनन्त जीवों ने पहले समय में ही सूक्ष्म शरीर के योग्य पुद्गलों का सर्वबन्ध किया। दूसरे समय में देशबन्ध चालू हुआ, तीसरे समय में वह शरीर जितने क्षेत्र को रोकता है, उतने परिमाण का सूक्ष्म पुद्गल-खण्ड जघन्य अवधिज्ञान का विषय हो सकता है। पहले और दूसरे समय का बना हुआ सूक्ष्मपनक शरीर अवधिज्ञान का विषय नहीं हो सकता, अति सूक्ष्म होने से। चौथे समय में वह शरीर अपेक्षाकृत स्थूल हो जाता है। अतः सूत्रकार ने तीन समय के बने हुए सूक्ष्म निगोदीय शरीर का उल्लेख किया है। जघन्य अवधिज्ञानी उपयोगपूर्वक उसका प्रत्यक्ष कर सकता है। सूक्ष्म-नाम कर्मोदय से मनुष्य और तिर्यंच दोनों गतियों से जीव निगोद में उत्पन्न हो सकते हैं, अन्य गतियों से नहीं। __ आत्मा असंख्यात प्रदेशी है। लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं, उतने प्रदेश एक आत्मा के हैं। सर्व आत्माओं के प्रदेश परस्पर एक समान हैं, न्यूनाधिक नहीं, प्रत्येक आत्मा के प्रदेश एक दूसरे से भिन्न नहीं, अपितु एक दूसरे से मिले हुए हैं, उन प्रदेशों का संकोच-विस्तार कार्मण योग से होता है। उनका संकोच यहां तक हो सकता है, कि वे सब सूक्ष्म पनक शरीर में भी रह सकते हैं और उनका विस्तार भी इतना हो सकता है कि वे लोकाकाश को भी व्याप्त कर लें। जब आत्मा कार्मण शरीर से रहित होकर सिद्धत्व प्राप्त कर लेता है, तब उन प्रदेशों में संकोच विस्तार नहीं होता। जब चरम-शरीरी चौदहवें गुणस्थान में पहुंच जाता है, तब शरीर की जो अवगाहना होती है, उसमें से आत्म-प्रदेशों का एक तिहाई भाग संकुचित हो जाता है। तत्पश्चात् आत्म-प्रदेश अवस्थित हो जाते हैं, क्योंकि जब कार्मण शरीर ही न रहा, तब कार्मण-योग कहां से हो ? आत्मप्रदेशों में संकोच-विस्तार सशरीरी जीवों में होता है। अन्य जन्तुओं की अपेक्षा से सूक्ष्मपनक शरीर सूक्ष्मतम होता है। जिस आत्मा को आहार किए हुए केवल तीन ही समय हुए हैं, ऐसे सूक्ष्मपनक जीव के शरीर को अवधिज्ञानी प्रत्यक्ष कर सकता है। भाषा वर्गणा पुद्गल चतु:स्पर्शी होते हैं और तैजस शरीर वर्गणा के पुद्गल आठ स्पर्शी होते हैं। उनके अपान्तराल में जो भी पुद्गल हैं, वे भी जघन्य अवधिज्ञानी के प्रत्यक्ष होने के योग्य हैं। * 204 * -
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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