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________________ सौधर्मकल्प में रहने वाले देवों का अवधिज्ञान जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र को, उत्कृष्ट रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे के चरमान्त को विषय करने वाला अवधिज्ञान होता है। वे तिरछे लोक में असंख्यात द्वीप- समुद्रों को और ऊंची दिशा में अपने कल्प के विमानों की ध्वजा तक अवधिज्ञान के द्वारा जानते व देखते हैं। शंका- जब कि सर्वतो जघन्य अवधिज्ञान अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र को ही विषय करता है और इस प्रकार का अवधिज्ञान मनुष्यों तथा तिर्यंचों को ही हो सकता है, देव और नारकियों को नहीं, तब वैमानिक देवों को सर्वतो जघन्य अवधिज्ञान का होना किस अपेक्षा से कहा गया है ? इसका समाधान यह है कि वैमानिक देवों को उपपात काल में जघन्य अवधिज्ञान सम्भव है। उपपात के अनन्तर वह अवधिज्ञान उतना ही हो जाता है, जितना होना चाहिए अर्थात् जब जन्म स्थान में पहुंचे हुए पहला ही समय होता है, तब उन्हें अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्र को विषय करने वाला अवधि ज्ञान होता है । कल्पना कीजिए किसी मनुष्य या तिर्यंच को जघन्य अवधिज्ञान पैदा हुआ, तत्पश्चात् वह मृत्यु को प्राप्त कर वैमानिक बना, तो उसे अपर्याप्त अवस्था में वही ज्ञान होता है जो वह मृत्यु के समय साथ ले गया था। पर्याप्त होने पर भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान ही होता है। अत: इससे सिद्धान्त में कोई विरोध नहीं आता। इस विषय को स्पष्ट करने के लिए जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण जी प्रतिपादन करते हैं, यथा “वेमाणियाणमंगलभागमसंखं, जहण्णओ होइ (ओही ) । उववाए परभविओ, तब्भवजो होइ तओ पच्छा ॥" इसी प्रकार सनत्कुमार आदि देवों के विषय में जान लेना चाहिए। इसके अनन्तर अधोभाग मे देखने की जो विशेषता है, उसका विवरण निम्न प्रकार है . सनत्कुमार और महेन्द्र देवलोक के देव नीचे शर्करप्रभा के चरमान्त को, ब्रह्म और लान्तक के देव वालुकाप्रभा पृथ्वी के चरमान्त को, महाशुक्र और सहस्रार के देव चौथी पृथ्वी के चरमान्त को, आणत - प्राणत, आरण और अच्युत कल्पों के देव पांचवीं पृथ्वी के नीचे चरमान्त को, तेरहवें देवलोक से लेकर अठारहवें देवलोक के छठी पृथ्वी के चरमान्त को और उपरितन ग्रैवेयक के देव सातवीं पृथ्वी को, तथा अनुत्तरोपपातिक देव सम्पूर्ण लोक को अवधिज्ञान के द्वारा जानते व देखते हैं। अवधिज्ञान का संस्थान भी अनेक प्रकार का है । भवनपति और वाणव्यन्तर देवों का अवधिज्ञान ऊंची दिशा की ओर अधिक होता है और वैमानिकों का नीचे की ओर अधिक होता है। ज्योतिषी और नारकियों का अवधिज्ञान विचित्र प्रकार का होता है। मनुष्यों का अवधिज्ञान भी विचित्र प्रकार का होता है । इस प्रकार यह आनुगामिक अवधिज्ञान और उसके विषय का विवेचन है। सूत्र 10 ॥ * 199*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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