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________________ अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है, वह उसी दिशा की ओर संख्यात व असंख्यात योजन में स्थित रूपी द्रव्यों को जानता व देखता है, किन्तु मध्यगत अवधिज्ञान से आत्मा सर्व दिशाओं और विदिशाओं में संख्यात व असंख्यात योजन पर्यन्त स्थित रूपी पदार्थों को विशेष रूप से जानता है और सामान्यरूप से देखता है। बस, यही दोनों में अन्तर है। इस सूत्र में 'सव्वओ समंता' ये दोनों पद विशेष मननीय हैं। सव्वओ का अर्थ है-सर्व दिशाओं और विदिशाओं में और समंता का अर्थ है-सर्व आत्म प्रदेशों से अथवा विशुद्ध स्पर्द्धकों से संख्यात वा असंख्यात योजनों पर्यन्त मध्यगत अवधिज्ञानी स्पष्टरूप से क्षेत्र को जानता व देखता है। इस पर चूर्णिकार लिखते हैं "सव्वओत्ति सव्वासु दिसिविदिसासु, समंता इति सव्वायप्पएसेसु सव्वेसु वा विसुद्धफड्डगेसु।" यहां तृतीय अर्थ में सप्तमी का प्रयोग है। “समंता' का दूसरा अर्थ वृत्तिकार ने किया है- “स-मन्ता" इत्यत्र स इत्यवधिज्ञानी परामृश्यते, मन्ता इति ज्ञाता, शेषं तथैव। वह अवधिज्ञानी सब ओर जानने वाला ज्ञाता। शेष सब अर्थ उपरोक्त प्रकार से समझ लेना चाहिए। मध्यगत अवधिज्ञान देव, नारक और तीर्थंकर, इन तीनों को तो नियमेन होता है। तिर्यंचों को सिफ्र अन्तगत हो सकता है, किन्तु मनुष्यों को अन्तगत और मध्यगत दोनों प्रकार का आनुगामिक अवधि ज्ञान हो सकता है। प्रज्ञापना सूत्र के 33वें पदं में अवधि ज्ञानी देव और नारकों का विवेचन निम्न प्रकार से किया गया है, जैसे-"नारकी, 'भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक को देशतः अवधिज्ञान नहीं होता, अपित सर्वतः होता है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों को देशतः अवधिज्ञान होता है, मनुष्यों को देशत: और सर्वतः दोनों प्रकार से हो सकता है। सूत्रकार ने 'संख्यात' व असंख्यात योजनों का जो परिमाण दिया है, इसका यह कारण है कि अवधिज्ञान के अनेक भेद हैं, जिनका वर्णन यथास्थान किया जाएगा, किन्तु रत्नप्रभा के नारकों को जघन्य साढ़े तीन कोस और उत्कृष्ट चार कोस। शर्करप्रभा में नारकों को जघन्य तीन और उत्कृष्ट साढ़े तीन कोस, वालुकाप्रभा में जघन्य अढ़ाई कोस, उत्कृष्ट तीन कोस, पंकप्रभा में जघन्य दो कोस और उत्कृष्ट ढाई कोस, धूमप्रभा में जघन्य डेढ़ कोस और उत्कृष्ट दो कोस, तमप्रभा में जघन्य एक कोस और उत्कृष्ट डेढ़ कोस तथा सातवीं तमतमा पृथ्वी के नारकियों को जघन्य आधा कोस और उत्कृष्ट एक कोस प्रमाण अवधिज्ञान होता है। __ असुर कुमारों को जघन्य 25 कोस और उत्कृष्ट असंख्यात द्वीप-समुद्रों को जानने वाला अवधिज्ञान होता है, किन्तु नाग कुमारों से लेकर स्तनित कुमारों पर्यन्त और वाणव्यन्तर देवों को जघन्य 25 योजन तथा उत्कृष्ट संख्यात द्वीप-समुद्रों को विषय करने वाला अवधिज्ञान होता है। ज्योतिषी देवों का जघन्य तथा उत्कृष्ट संख्यात योजन तक विषय करने वाला अवधिज्ञान होता है। *198* -
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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