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आत्मप्रदेशों के पर्यन्त भाग में जो अवधि ज्ञान उत्पन्न होता है, उसके अनेक भेद हैं। कोई आगे की दिशा को प्रकाशित करता है, कोई पीछे, कोई दाईं और बाईं दिशा को प्रकाशित करने वाला होता है। कोई इनसे विलक्षण मध्यगत अवधिज्ञान होता है, जैसे- “यदा अन्तर्वर्तिष्वात्मप्रदेशेष्ववधिज्ञानमुपजायते तदा आत्मनोऽन्ते-पर्यन्ते स्थितमिति कृत्वा अन्तगतमित्युच्यते, तैरेव पर्यन्तवर्त्तिभिरात्मप्रदेशैः साक्षादवधिरूपेण ज्ञानेन ज्ञानान्न शेषैरिति।" अथवा जो औदारिक शरीर के किसी एक ओर विशेष क्षयोपशम होने से अवधि उत्पन्न हो, उसे अन्तगत अवधिज्ञान कहा जाता है। अथवा सर्वात्मप्रदेशों के क्षयोपशम भाव से औदारिक शरीर की एक दिशा में उपलब्ध होने से भी अन्तगत अवधिज्ञान कहते हैं। ___ यहां यह शंका उत्पन्न हो सकती है कि जब सर्व आत्मप्रदेशों पर अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम हो गया, तब वह ज्ञान सर्व प्रकार से क्यों प्रत्यक्ष नहीं करता? इसका समाधान यह है कि "विचित्राःक्षयोपशमाः'क्षयोपशम भाव की यह विचित्रता है जो कि औदारिक शरीर की अपेक्षा विवक्षित एक ही दिशा में रहे हुए रूपी पदार्थों का प्रत्यक्ष करता है। इस विषय में चूर्णिकार लिखते हैं-“ओरालिए सरीरन्ते ठियं गयं त्ति, एगळं तं चायप्पएसफड्डगा बहि एगदिसोवलम्भाओ य अन्तगयमोहिनाणं भण्णइ, अहवा सव्वायप्पएसेसु विसुद्धेसुऽवि ओरालियसरीरंगतेण एगदिसि पासणागयंति, अंतगयं भण्णइ।" . अन्तगत का तीसरा अर्थ है-एक दिशा में होने वाले उस अवधिज्ञान के द्वारा प्रकाशित क्षेत्र के चरमान्त को जानना। उस क्षेत्र के अन्त में वर्तने से वह अन्तगत अवधिज्ञान कहा जाता है, जैसे कहा भी है-“ततो एकदिग्रूपस्यावधिज्ञानविषयस्य पर्यन्ते व्यवस्थितमन्तगतम्।" 'च' शब्द देश कालादि की अपेक्षा से स्वगत अनेक भेदों का सूचक है। इसी प्रकार मध्यगत अवधिज्ञान की भी तीन प्रकार से व्याख्या करनी चाहिए। आत्मप्रदेशों के मध्यवर्ती प्रदेशों में विशिष्ट क्षयोपशम से उत्पन्न अवधिज्ञान को मध्यगत कहते हैं। यह अवधिज्ञान सब दिशाओं में रहे हुए रूपी पदार्थों को जानने की शक्ति रखता है। अतः प्रदेशों के मध्यवर्ती होने से इसे मध्यगत कहा जाता है। अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम होने पर औदारिक शरीर के मध्य भाग से जिस ज्ञान की उपलब्धि हो, वह मध्यगत अवधिज्ञान कहा जाता है। चूर्णिकार भी इस बारे में लिखते हैं-"ओरालियसरीरमझे फड्डगविसुद्धीओ सव्वायप्पएसविसुद्धीओ वा सव्व दिसोवलंभत्तणओ मज्झगउत्ति भण्णइ।" जिस अवधिज्ञान से सर्व दिशाएं प्रकाशित हो रही हैं, उन दिशाओं के मध्यभाग में रहने वाला अवधिज्ञानी या अवधिज्ञान मध्यगत कहलाता है, कारण कि वह प्रकाशित क्षेत्र के मध्यवर्ती है, यह विशेषता अन्तगत में नहीं है। इस विषय पर चूर्णिकार लिखते हैं-अहवा उवलद्धिखेत्तस्स अवहिपुरिसो मज्झगउत्ति, अतो वा मज्झगउ ओही भण्णइ।" अंतगत अवधिज्ञान के तीन भेद हैं, जैसे-पुरओ अंतगयं, मग्गओ अंतगयं, पासओ अंतगयं। जिस समय अवधिज्ञान की
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