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________________ हुआ साथ-साथ चलता है, उसे पुरतः अन्तगत अवधि कहते हैं। मार्ग से अन्तगत अवधि किस प्रकार होता है ? शिष्य ने पूछा। गुरु बोले-जैसे यथानामक कोई व्यक्ति उल्का-जलती हुई तृणपूलिका, अग्रभाग से जलते हुए काठ को, मणि को, प्रदीप अथवा ज्योति को हाथ या किसी अन्य दण्ड द्वारा पीछे करके, उक्त पदार्थों से प्रकाश करके देखता हुआ चलता है। वैसे ही जो आत्मा पीछे के प्रदेश को अवधिज्ञान से प्रकाशित करता है, उसका वह पृष्ठगामी अवधि मार्ग से अन्तगत अवधिज्ञान कहा जाता है। वह पार्श्व से अन्तगत अवधि क्या है ? इस पर गुरुदेव ने उत्तर दिया-पार्वतो अन्तगत अवधि, जिस प्रकार कोई पुरुष-दीपिका, चटुली, अग्रभाग से जलते हुए काठ को, मणि अथवा प्रदीप या अग्नि को दोनों पाओं-बाजुओं से परिकर्षण करता हुआ दोनों ओर के क्षेत्र को प्रकाशित करता हुआ चलता है। ऐसे ही जिस आत्मा का अवधि ज्ञान पार्श्व के पदार्थों का ज्ञान कराता हुआ साथ-साथ चलता है, उसे पार्श्वतो अन्तगत अवधिज्ञान कहा जाता है। इस तरह यह अन्तगत अवधिज्ञान का वर्णन है। शिष्य ने फिर पूछा-वह मध्यगत अवधिज्ञान किस प्रकार है ? गुरुजी ने उत्तर दिया-वत्स ! मध्यगत अवधि, जैसे यथानामक कोई पुरुष-उल्का अथवा तृणों की पूलिका, अथवा अग्र भागों में जलते हुए काठ को, मणि को या प्रदीप को या शरावादि में रखी हुई अग्नि को मस्तक पर रखकर चलता है। जैसे वह पुरुष सर्व दिशाओं में रहे हुए पदार्थों को उपरोक्त प्रकाश के द्वारा देखता हुआ चलता है, ठीक इसी प्रकार चारों ओर के पदार्थों का ज्ञान कराते हुए जो ज्ञान ज्ञाता के साथ-साथ चलता है उसे मध्यगत अवधि ज्ञान कहा जाता है। टीका-इस सूत्र में आनुगामिक अवधिज्ञान और उसके भेदों का वर्णन किया गया है। जिस स्थान या जिस भव में किसी आत्मा को अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, यदि वह स्थानान्तर या दूसरे भव में चला जाए और उत्पन्न अवधिज्ञान भी साथ ही रहे, उसे आनुगामिक अवधिज्ञान कहते हैं। इसके मुख्यतया दो भेद हैं-अन्तगत और मध्यगत। यहां अन्त' शब्द पर्यन्त का वाची है। न कि विनाश का। जैसे 'वनान्ते' अर्थात् वन के किसी छोर में। इसी प्रकार जो आत्मप्रदेशों के किसी एक छोर में विशिष्ट क्षयोपशम होने से ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे अन्तगत अवधिज्ञान कहते हैं। जैसे-“अन्तगतम्-आत्मप्रदेशानां पर्यन्ते स्थितमन्तगतम्" जिस प्रकार गवाक्ष, जालादि द्वार से निकली हुई प्रदीप की प्रभा बाहर प्रकाश करती है, उसी प्रकार अवधिज्ञान की समुज्ज्वल किरणे स्पर्द्धकरूप छिद्रों से बाह्य जगत् को प्रकाशित करती हैं। एक जीव के संख्यात तथा असंख्यात स्पर्द्धक होते हैं और वे विचित्र रूप होते हैं। - * 194* -
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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