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________________ किरणें सम्मुख दिशा की ओर वस्तु को प्रकाशित करती हैं, उस समय उसे पुरतोऽन्तगत, जब वे ज्ञान की किरणे पीछे की ओर क्षेत्र को प्रकाशित करती हैं, तब मार्गतोऽन्तगत और जब ज्ञानी के पार्यों की ओर पदार्थों को प्रकाशित करती हैं, तब उसे पार्श्वतोऽन्तगत कहते हैं। उदाहरण के रूप में, यदि टार्च को आगे की तरफ जलाया जाए तो प्रकाश आगे की ओर होता है। यदि पीछे की ओर जलाया जाए तो पीछे रहे हुए पदार्थ प्रकाशित हो जाते हैं और यदि दाएं या बाएं जलाया जाए तो आस-पास में रहे हुए पदार्थ आलोकित हो जाते हैं। बस यही उदाहरण अन्तगत के अन्तर्गत तीन प्रकार के अवधिज्ञान के विषय में समझ लेना चाहिए। उक्कं-दीपिका-लैम्प, चडुलियं-जलती हुई दियासलाई, अलायं-जलती हुई लकड़ी, मणिं-जगमगाती हुई मणि, पईवं-प्रदीप, जोइं-जलती हुई तेलबत्ती आदि शब्दों का जो सूत्र में प्रयोग किया गया है, वह प्रकाश के तरतम को लेकर किया है, अर्थात् किसी में प्रकाश मन्द होता है, किसी में तीव्र, किसी में धूमिल और किसी में समुज्ज्वल, कोई निकटवर्ती क्षेत्र को प्रकाशित करता है तो कोई 'सर्चलाईट' की भांति दूरवर्ती क्षेत्र को भी प्रकाशित करता है, इसी प्रकार अन्तगत अवधिज्ञान भी सब का एक समान नहीं होता, किसी का धूमिल, किसी का निर्मल, किसी का अल्प क्षेत्रग्राही और किसी का अवधिज्ञान संख्यात व असंख्यात योजन प्रमाण क्षेत्रग्राही होता है। अतः इस ज्ञान के प्रकार अगणित हैं। मध्यगत अवधिज्ञान वह है जो एक साथ सब दिशाओं में प्रकाशित करता है, जिस प्रकार कोई व्यक्ति रात्रि के समय उपर्युक्त प्रकाशमान वस्तुओं को ऊपर रखकर चलता है तो उनका वह प्रकाश सब दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ व्यक्ति का अनुसरण करता है। इसी प्रकार मध्यगत अवधिज्ञान भी सब ओर क्षेत्र को प्रकाशित करता हुआ अनुगमन करता अन्तगत और मध्यगत में विशेषता. मूलम्-अंतगयस्स मज्झगयस्स य को पइविसेसो ? पुरओ अंतगएणं ओहिनाणेणं पुरओ चेव संखिज्जाणि वा, असंखिज्जाणि वा जोयणाइं जाणइ पासइ। मग्गओ अंतगएणं ओहिनाणेणं मग्गओ चेव संखिज्जाणि वा, असंखिज्जाणि वा जोयणाई जाणइ पासइ। पासओ अंतगएणं ओहिमाणेणं पासओ चेव संखिज्जाणि वा, असंखिज्जाणि वा जोयणाई जाणइ पासइ। मज्झगएणं ओहिनाणेणं सव्वओ समंता संखिज्जाणि वा, असंखिज्जाणि वा जोयणाइं जाणइ पासइ। से त्तं आणुगामियं ओहिनाणं ॥ सूत्र १० ॥ छाया-अन्तगतस्य मध्यगतस्य च कः प्रतिविशेषः ? पुरतोऽन्तगतेनाऽवधिज्ञानेन पुरतश्चैव संख्येयानि वा, असंख्येयानि वा योजनानि जानाति पश्यति। मार्गतो - * 196*
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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