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वासनाओं से अलिप्त है, उन्हें सन्मार्ग में लाना मोक्ष पथ के पथिक बनाना, आगम के उद्भट विद्वान्, संयमी, विनीत, शांत तथा अनुयोगाचार्य बनाना सुगम है। क्योंकि वे कुसंस्कारों से रहित हैं। जिस प्रकार खान से तत्काल निकले हुए असंस्कृत रत्नों को कारीगर जैसा चाहे सुधार कर मुकुट, हार तथा अंगूठी आदि भूषणों में जड़ सकता है। इसी प्रकार जो किसी भी मार्ग या स्थान में लगाए जा सकें, ऐसे श्रोताओं की परिषद् को अविज्ञ परिषद् कहते हैं।
3. कषाय एवं विषय लम्पट, मूढ़, हठीले, कृतघ्न, अविनीत, क्रोधी, विकथाओं में अनुरक्त, अभिमानी, स्वच्छन्दाचारी, असंवृत्त, श्रद्धाविहीन, मिथ्यादृष्टि, नास्तिक, उन्मार्गगामी, तत्वविरोधी आदि अवगुणयुक्त जो अपने को पंडित समझते हैं, वे सब दुर्विदग्ध हैं। जो पंडित न होते हुए भी अपने को पंडित कहता है, उसे दुर्विदग्ध कहते हैं। जैसे कोई ग्रामीण पंडित किसी भी विषय में या शास्त्रों में विद्वत्ता नहीं रखता और न अनादर के भय से किसी विद्वान् से ही पूछता है, किन्तु केवल वायु से पूरित दृति (मशक) के तुल्य लोगों से अपने पांडित्य के प्रवाद को सुनकर फूला हुआ रहता है। ऐसे लोगों की परिषद् को दुर्विदग्धा परिषद् कहते हैं। दुर्विदग्ध तीन प्रकार के होते हैं-किंचिन्मात्रग्राही, पल्लवग्राही और त्वरितग्राही। इनमें से कोई भी हो, वह दुर्विदग्ध है।
उपर्युक्त परिषदों में पहली विज्ञ परिषद् अनुयोग के सर्वथा उचित है। दूसरी अविज्ञ परिषद् भी कथंचित् उचित ही है। क्योंकि आगमों की व्याख्या समझाने में विलंब तो अवश्य होता है, किन्तु समयान्तर में सफलीभूत होने में संदेह नहीं। तीसरी दुर्विदग्धा तो शास्त्रीय ज्ञान के सर्वथा अयोग्य है। ____ इसी बात को दृष्टि में रखते हुए देववाचकजी ने शास्त्रीय ज्ञान के श्रोताओं की परिषदों का सर्वप्रथम वर्णन किया है।
ज्ञान के पांच भेद , मूलम्-नाणं पंचविहं पण्णत्तं, तं जहा-१. आभिणिबोहियनाणं, २. सुयनाणं, ३. ओहिनाणं, ४. मण-पज्जवनाणं, ५. केवलनाणं ॥ सूत्र१॥
छाया-ज्ञानं पञ्चविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-१. आभिनिबोधिकज्ञानं, २. श्रुतज्ञानम्, ३. अवधिज्ञानं, ४. मनःपर्यवज्ञानं, ५. केवलज्ञानम् ॥ सू.१॥
भावार्थ-ज्ञान पांच प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, जैसे कि-१. आभिनिबोधिक ज्ञान, २. श्रुतज्ञान, ३. अवधिज्ञान, ४. मनःपर्यवज्ञान और ५. केवलज्ञान ॥ सूत्र १॥
टीका-इस सूत्र में ज्ञान और उसके भेदों का वर्णन किया गया है, यद्यपि भगवत्स्तुति, गणधरावलिका तथा स्थविरावलिका के द्वारा मंगलाचरण किया जा चुका है, तदपि नन्दी शास्त्र का आद्य सूत्र मंगलाचरण के रूप में प्रतिपादन किया गया है। ज्ञान-नय के मत से ज्ञान
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