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भी मोक्ष का मुख्य अंग है। ज्ञान और दर्शन ये दोनों आत्मा के असाधारण गुण हैं। आत्मा विशुद्ध दशा में ज्ञाता और द्रष्टा होता है, उसी अवस्था को सिद्ध, अजर, अमर और निरुपाधिकब्रह्म कहा जाता है। साधक दशा में ज्ञान मोक्ष का साधन है और उसके पूर्ण विकास को ही मोक्ष कहते हैं। ज्ञान मंगल का कारण है। अतः ज्ञान का प्रतिपादक होने से पहला सूत्र मंगलरूप है।
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अब ज्ञान शब्द का अर्थ दिया जाता है- पदार्थों को जानना ही ज्ञान है, उसे भाव साधन कहते हैं। जिसके द्वारा वस्तु का स्वरूप जाना जाए, अथवा जिससे जाना जाए, अथवा जिसमें जाना जाए, उसे ज्ञान कहते हैं। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय व क्षयोपशम से उत्पन्न आत्मा के स्वतत्त्व बोध को ज्ञान कहते हैं। ज्ञान शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए वृत्तिकार ने अनुयोगद्वार सूत्र में लिखा है- "ज्ञातिर्ज्ञानं, कृत्यलुटोबहुलम् (पा० ३ | ३ | ११३ ) इति वचनात् भावसाधनः, ज्ञायते - परिच्छिद्यते वस्त्वनेनास्मादस्मिन्वेति वा ज्ञानं, जानाति स्वविषयं परिच्छिनत्तीति वा ज्ञानं, ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमक्षयजन्यो जीवस्वतत्त्वभूतो बोध इत्यर्थः । तथा नन्दीसूत्र : के वृत्तिकार ने जिज्ञासुओं के सुगम बोध के लिए ज्ञान शब्द केवल भावसाधन और करण - साधन ही स्वीकार किया है, जैसे कि - "ज्ञातिर्ज्ञानं भावे अनट् प्रत्ययः अथवा ज्ञायते परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति ज्ञानं करणे अनट्, शेषास्तु व्युत्पत्तयो मन्दमतीनां सम्मोहहेतुत्वान्नोपदिश्यन्ते । "
• सारांश यह है कि आत्मा को ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम व क्षय से जो स्वतत्त्व बोध होता है, वही ज्ञान है। केवल ज्ञान क्षायिक भाव में होता है और शेष चार ज्ञान क्षयोपशम जन्य हैं। अतः सूत्रकार ने नाणं पंचविहं पण्णत्तं ज्ञान पांच प्रकार से वर्णन किया है, इसी कारण यह सूत्र आदि में दिया है। पण्णत्तं इस पद के संस्कृत भाषा में चार रूप बनते हैं, जैसे . कि-प्रज्ञप्तं-प्राज्ञाप्तं-प्राज्ञात्तं प्रज्ञाप्तम् । इन शब्दों का अर्थ है - तीर्थंकर भगवान ने सर्वप्रथम अर्थ रूप में प्रतिपादन किया और गणधरों ने सूत्ररूप से प्ररूपण किया, यह प्रज्ञप्तं शब्द का अर्थ हुआ। जिस अर्थ को गणधरों ने तीर्थंकर से प्राप्त किया, उसे प्राज्ञाप्तं कहते हैं। जिस अर्थ को गणधरों ने तीर्थंकर से ग्रहण किया, उसे प्राज्ञात्तं कहते हैं और जिस अर्थ को अपनी कुशाग्रबुद्धि से भव्य जीवों ने प्राप्त किया, उसे प्रज्ञाप्तं कहते हैं। क्योंकि विकल बुद्धि वाले जीव इस गहन विषय को प्राप्त नहीं कर सकते। पण्णत्तं कहकर सूत्रकार ने गुरुभक्ति और जिनभक्ति करना सिद्ध किया है और स्वबुद्धि के अभिमान का परिहार किया है। कहा भी है
“पण्णत्तं' ति प्रज्ञप्तमर्थतस्तीर्थंकरैः, सूत्रतो गणधरैः प्ररूपितमित्यर्थः, अनेन सूत्रकृता . आत्मनः स्वमनीषिका परिहृता भवति, अथवा प्राज्ञात् तीर्थंकराद् आप्तं प्राप्तं गणधरैरिति प्राज्ञाप्तं, अथवा प्राज्ञैर्गणधरैस्तीर्थंकरादात्तं गृहीतमिति - प्राज्ञात्तं, प्रज्ञया वा भव्यजन्तुभिराप्तं प्राप्तं प्रज्ञाप्तं, नहि प्रज्ञाविकलैरिदमवाप्यते इति - प्रतीतमेव, ह्रस्वत्वं सर्वत्र प्राकृत
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