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निकाला और विचारने लगा–यदि मैं खाना-दाना आदि देकर गाय की सेवा करूंगा तो इसका दूध दूसरा दुह लेगा, मेरा खिलाया-पिलाया व्यर्थ जाएगा। ऐसा विचार कर गाय को खाना आदि कुछ न दिया और छोड़ दिया। क्रमशः सभी ने दूध तो निकाला परन्तु सेवा न की। परिणामस्वरूप गाय दूध से भाग गई और भूख-प्यास से पीड़ित होकर कुछ ही दिनों में मर गई, जिसका ब्राह्मणों को कुछ भी दुःख न हुआ। क्योंकि वह मूल्य से तो खरीदी नहीं थी, दान में आयी थी। ब्राह्मणों की इस निद्रयता और मूर्खता से जनता में अपवाद होने लगा और उन्हें गांव छोड़कर अन्यत्र कहीं जाना पड़ा। इसी प्रकार जो शिष्य अथवा श्रोता गुरु की सेवा-भक्ति नहीं करता और आहार-पानी आदि भी लाकर नहीं देता, और सूत्र-ज्ञान प्राप्त करने के लिए बैठ जाता है, वह भी शास्त्रीय ज्ञान का अधिकारी नहीं है। .
इसके विपरीत किसी सेठ ने चार ब्राह्मणों को गाय का संकल्प किया। वे चारों ब्राह्मण गाय की तन-मन से सेवा करते। उन सबका मुख्य उद्देश्य गाय की सेवा का था, दूध का नहीं। वे चारों क्रमश: गाय की खूब सेवा करते और दोनों समय पर्याप्त मात्रा में दूध भी दुहते तथा बछड़े को भी पर्याप्त मात्रा में पिलाते। अधिक क्या ? गो-सेवक की भांति अपना कर्त्तव्य-पालन करके अभीष्ट फल प्राप्त करते। इससे ब्राह्मण भी सन्तुष्ट थे और गाय भी पुष्ट थी तथा दूध भी खूब देती। इसी प्रकार सुशिष्य या श्रोता विचार करे कि यदि मैं आचार्य या गुरु की अच्छी तरह सेवा करूंगा, आहार, वस्त्र, स्थान, औषधोपचार से साता उपजाऊंगा तो गुरुदेव दीर्घ काल तक नीरोग रहकर हमें ज्ञानदान देते रहेंगे तथा दूसरे गण से आए हुए साधुओं को भी ज्ञानदान देते रहेंगे। इस प्रकार शिष्यों को वैयावृत्य करते देखकर अन्य गण से आए साधु भी विचार करेंगे कि ये शिष्य इनकी इतनी विनय, भक्ति सेवा करते हैं, हमें भी सेवा में हाथ बंटाना चाहिए। वाचनाचार्य जितने प्रसन्न रहेंगे उतना ही हमें आगम-ज्ञान से समृद्ध बनाएंगे। इनको साता पहुंचाने से तथा नीरोग एवं सन्तुष्ट रखने से ज्ञानरूपी दुग्ध निरन्तर मिलता रहेगा। ऐसे शिष्य ही शास्त्रीय-ज्ञान के अधिकारी तथा रत्नत्रय की आराधना करके अजर-अमर हो सकते हैं।
१३. भेरी-एक बार सौधर्माधिपति शक्रेन्द्र ने अपनी महापरिषद् में देव-देवियों के सम्मुख महाराजा कृष्ण की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की-उनमें दो गुण विशेष हैं-एक गुणग्राहकता
और दूसरा नीचयुद्ध से दूर रहना। एक देव शक्रेन्द्र के वचनों पर श्रद्धा न करता हुआ परीक्षा लेने के लिए मध्यलोक में द्वारवती नगरी के बाहर राजमार्ग के एक ओर कुत्ते का रूप धारण करके लेट गया। कुत्ते का रंग काला था, शरीर में कीड़े पड़े हुए थे, दुर्गन्ध से आसपास का क्षेत्र व्याप्त था। देखने वालों को ऐसा प्रतीत होता था जैसे कुत्ते का कलेवर पड़ा हुआ हो। उस मृत कुत्ते का मुख खुला हुआ था, दांत बाहर स्पष्टतया दीख रहे थे। __ऐसे समय में कृष्णजी बड़े समारोह से अरिष्टनेमि भगवान के दर्शनार्थ उसी मार्ग से
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