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________________ (८) मशक-डांस-मच्छर-खटमल वगैरा शरीर पर बैठते ही डंक मारना प्रारम्भ कर देते हैं और कष्ट देकर रक्तपान करते हैं, उनका स्वभाव गुणग्राही नहीं होता। वैसे ही जो श्रोता या शिष्य गुरु की कोई सेवा नहीं करते, प्रत्युत कष्ट देकर ही शिक्षा प्राप्त करते हैं, ऐसे श्रोता या शिष्य अविनीत होते हैं, वे श्रुतज्ञान के अनधिकारी हैं। उन्हें श्रुतज्ञान देना सूत्र की आशातना - (९) जलौका-जैसे गाय या भैंस के स्तनों में लगी हुई जोंक दूध न पीकर रक्त को ही पीती है, वैसे ही जो शिष्य आचार्य, उपाध्याय में रहे हुए गुणों को तथा आगमज्ञान को तो ग्रहण नहीं करते, परन्तु अवगुणों को ही ग्रहण करते हैं, वे जोंक के समान हैं तथा श्रुतज्ञान के अनधिकारी हैं। (१०) बिडाली-बिल्ली की आदत है, यदि खाने-पीने की वस्तु छींके पर रखी हुई हो तो झपट्टा मारकर बर्तन को नीचे गिरा देती है। बर्तन फूट जाता है, फिर धूलि में मिले हुए दूध, दही, घृत, वगैरा पदार्थों को चाटकर खा जाती है। इससे वस्तु बेकार हो जाती है, किसी के काम नहीं आती और स्वयं धूलियुक्त पदार्थ का आहार करती है। इसी प्रकार कुछ एक श्रोता या शिष्य अभिमान तथा आलस्यवश गुरु के निकट उपदेश नहीं सुनते, शास्त्र-वाचना नहीं लेते। परन्तु जो सुनकर आए हैं, उनमें से किसी एक से सुनते हैं, बुद्धि की मन्दता से वह जैसे सुनकर आया है, वैसा सुना नहीं सकता, कभी किसी से पूछता है, कभी किसी से सुनता है, कभी किसी से पढ़ता है। परन्तु जो शुद्ध ज्ञान गुरुदेव के मुखारविन्द से सुनकर प्राप्त हो सकता है, वह अन्य किसी मन्दमति से सुनकर नहीं हो सकता। अतः जो शिष्य श्रोता बिडाली के तुल्य हैं, वे भी श्रुतज्ञान के पात्र नहीं हैं। (११) जाहक-सेह या चूहे जैसा एक प्राणी होता है, उसका स्वभाव है कि-दूध, दही आदि खाद्य पदार्थ जहां हैं वहीं पहुंचकर थोड़ा-थोड़ा पीता है और उस बर्तन के आसपास लगे हुए लेप को चाटता है, इस क्रम से शुद्ध वस्तु को ग्रहण तो करता है, किन्तु उसे खराब नहीं करता। इसी प्रकार जो श्रोता या शिष्य गुरु के निकट बैठकर विनय से श्रुतज्ञान प्राप्त करता है, फिर मनन-चिन्तन करता है, पहले ली हुई वाचना को समझता रहता है और आगे पाठ लेता रहता है, नहीं समझने पर गुरु से पूछता रहता है, ऐसा शिष्य या श्रोता आमगज्ञान का अधिकारी है। (१२) गौ-किसी यजमान ने चार ब्राह्मणों को पहले भोजन खिलाकर यथाशक्ति उन्हें दक्षिणा दी और एक प्रसूता गौ भी दी जो चारों के लिए सांझी थी और उनसे कह दिया गया कि-चारों बारी-बारी से दूध दुह लिया करें। अर्थात् जिसकी बारी हो उस दिन वही उसकी सेवा तथा दोहन करे। ऐसा समझाकर उन्हें विदा किया। ब्राह्मण स्वार्थी थे। अत: उन्होंने परस्पर बैठकर अपने दिन निश्चित कर लिए। प्रथम दिन वाले ब्राह्मण ने अपना समय देखकर दूध
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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