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(३) चालनी-जिन श्रोताओं की धारणाशक्ति इतनी कृश है, जो कि उत्तम-उत्तम शिक्षाएं, उपदेश, श्रुतज्ञान सुनने का समागम बनने पर भी एक ओर सुनते जाते हैं और दूसरी
ओर भूलते जाते हैं, वे चालनी के तुल्य होते हैं। चालनी को जैसे ही पानी में डाला, वह भरी हुई नजर आती है। परन्तु उठा देने से तुरन्त रिक्त नजर आती है। इस प्रकार के श्रोता श्रुतज्ञान के अयोग्य हैं। अथवा-चालनी सार-सार को छोड़ देती है, असार को अपने अन्दर रखती है, वैसे ही जो श्रोता गुणों को छोड़कर अवगुणों को धारण किए रहते हैं, वे भी चालनी के तुल्य श्रुत के अनधिकारी होते हैं।
(४) परिपूर्णक-जिससे घृत, दूध, पानी आदि पदार्थ छाने जाते हैं, वह छन्ना (पोना) कहलाता है। उसमें से सार-सार निकल जाता है, कूड़ा-कचरा उसमें ठहर जाता है, इसी प्रकार जो श्रोता गुणों को छोड़कर अवगुणों को अपने में धारण करते हैं, वे परिपूर्णक के तुल्य होते हैं और श्रुत के अनधिकारी हैं।
(५) हंस-पक्षियों में हंस श्रेष्ठ माना जाता है। यह पक्षी प्रायः जलाशय, सरोवर यां गंगा के किनारे रहता है। इसमें सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि-शुद्ध दूध में से भी केवल दुग्धांश को ही ग्रहण करता है और जलीयांश को छोड़ देता है। ठीक इसी प्रकार कुछ एक श्रोता शास्त्र श्रवण के बाद केवल सत्यांश को ग्रहण करने वाले होते हैं, असत्यांश को बिल्कुल ग्रहण नहीं करते। जो केवल गुणग्राही होते हैं, वे श्रोता हंस के तुल्य होते हैं और श्रुतज्ञान के अधिकारी होते हैं। ___ (६) महिष-जिस प्रकार भैंसा जलाशय में घुसकर स्वच्छ पानी को मलिन बना देता है और पानी में मूत्र-गोबर कर देता है, न वह स्वच्छ पानी स्वयं पीता है और न अपने साथियों को निर्मल जल पीने देता है, यह भैंस या भैंसों का स्वभाव है। इसी प्रकार कुछ एक श्रोता या शिष्य भैंसे के तुल्य होते हैं, जब गुरु अथवा आचार्य-भगवान उपदेश सुना रहे हों या शास्त्र-वाचना दे रहे हों, उस समय न एकाग्रता से स्वयं सुनना और न दूसरों को सुनने देना, हंसी-मसखरी करना, परस्पर कानाफूसी, छेड़छाड़ करते रहना, अप्रासंगिक और असम्बद्ध प्रश्न करना, कुतर्क तथा वितण्डावाद में पड़कर अमूल्य समय नष्ट करना, ये सब अनधिकार चेष्टाएं हैं। अत: ऐसे श्रोता अथवा शिष्य भी शास्त्र-श्रवण एवं श्रुतज्ञान के अधिकारी नहीं होते।
(७) मेष-जैसे मेंढा या बकरी आदि का स्वभाव अगले दोनों घुटनों को टेककर स्वच्छ जल पीने का है और वे पानी को मलिन नहीं करते, इसी प्रकार एकाग्रचित्त से उपदेश तथा शास्त्र-श्रवण करने वाले शिष्य और श्रोता श्रुतज्ञान के अधिकारी होते हैं। चक्षु गुरु के मुख की ओर, श्रोत्रेन्द्रिय वाणी सुनने में, मन में एकाग्रता, बुद्धि सत् और असत् की कांट-छांट में, धारणा सत्य विषय को धारण करने में लगी हुई हो, ऐसे शिष्य आगम-शास्त्रों को श्रवण करने के अधिकारी एवं सुपात्र होते हैं।
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