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निकले। कुत्ते की उस महादुर्गन्ध से सारी सेना घबरा उठी। कोई मुंह ढांककर, कोई नाक पकड़कर, कोई प्राणायम से, कोई द्रुत गति से, कोई उन्मार्ग से जाने लगे। कृष्ण वासुदेव जी ने वस्तुस्थिति को समझा-औदारिक शरीर की असारता जानते हुए तथा किंचिन्मात्र भी घृणा न करते हुए उस कुत्ते के सन्निकट पहुंचे और कहने लगे कि इस कुत्ते की दन्तश्रेणी ऐसी प्रतीत होती है, जैसे कि मोतियों की चमकती हुई श्रेणी। यह सुनते ही देवता आश्चर्यचकित हुआ और सोचने लगा कि मेरे इस वीभत्स शरीर तथा असह्य दुर्गन्ध के कारण समीप आने का कोई भी प्रयास नहीं करता था, सभी थू-थू करते हुए दूर से ही निकल जाते थे,किन्तु कृष्णजी ही समीप आए और गुण ही ग्रहण किया है। जहां वीभत्स रस की अनुभूति होती हो वहां से भी गुण ग्रहण करना, यह इन्हीं में विशेष गुण देखने में आया है। तत्पश्चात् कृष्णजी द्वारिका नगरी के बाहर उद्यान में ठहरे हुए अरिष्टनेमि भगवान के पास दर्शनार्थ चले गए।
कालान्तर में वही देव फिर परीक्षा लेने के लिए आया और कृष्णजी के विशिष्ट घोड़े को लेकर भाग गया। सैनिकों ने पीछा किया, किन्तु वह किसी के हाथ नहीं आया। तब कृष्ण वासुदेव स्वयं उसके मुकाबले पर घोड़ा छुड़ाने के लिए गए। वह देवता बोला-आप मेरे साथ युद्ध करके घोड़ा ले जा सकते हैं, जो जीतेगा घोड़ा उसी का होगा। तब कृष्णजी ने कहा-युद्ध अनेक प्रकार के होते हैं, जैसे कि-मल्लयुद्ध, मुष्टियुद्ध, दृष्टियुद्ध इत्यादि युद्धों में कौन-सा युद्ध तुम पसन्द करते हो ? देव मनुष्याकृति में बोला-मैं पीठ से युद्ध करना चाहता हूं, आपकी भी पीठ और मेरी भी पीठ हो। इसका उत्तर देते हुए कृष्णजी ने कहा कि मैं ऐसा निर्लज्ज युद्ध करके अश्व प्राप्त करूं यह मेरी शान के विरुद्ध है। यह सुनकर देव हर्षान्वित होकर अपने असली रूप में वस्त्राभूषणों से अलंकृत होकर कृष्णजी के सम्मुख प्रकट होकर चरण-कमलों में मस्तक झुकाकर कहने लगा-आपकी प्रशंसा देवसभा में इन्द्र ने की थी। कुत्ते का रूप भी मैंने ही धारण किया था। दो गुण आपमें विशिष्ट हैं, यह मैंने प्रत्यक्ष देख लिया। प्रशंसा करके देव कहने लगा-वरदान के रूप में आपको मैं यह दिव्य भेरी देना चाहता हूं, छ: महीने के बाद एक दिन इसे बजाया जाए तो आपके राज्य में यदि छः महीने की रोग-महामारी हो, वह शान्त हो जाएगी और अनागत काल छः महीने तक कोई बीमारी नहीं फैलेगी। जो इसकी आवाज को सुनेगा वह भले ही असाध्य रोग से ग्रस्त हो, तुरन्त स्वस्थ हो जाएगा। इसके साथ ही यह भी शर्त है कि छः मास की समाप्ति से पहले इसे न बजाया जाए।
देव ने कृष्णजी को भेरी अप्रण करते समय कहा-इसमें यह विशिष्ट द्रव्य लगा हुआ है, इसी के प्रभाव से इसमें रोग को नष्ट करने की शक्ति है, इसके अभाव में साधारण भेरियों के तुल्य ही है। यह कहकर देव अपने स्थान पर चला गया। श्रीकृष्णजी ने भेरी अपने विश्वासपात्र सेवक को सौंप दी तथा भेरी के विषय में भी
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