________________
छाया- सुकुमार-कोमलतलान्, तेषां प्रणमामि लक्षणप्रशस्तान् ।
पादान्प्रावचनिकानां, प्रातीच्छिकशतैः प्रणिपतितान्॥४९॥ पदार्थ-तेसिं पावयणीणं-पूर्वोक्त गुणसम्पन्न उन प्रावचनिकों के, लक्खणपसत्थेप्रशस्त लक्षणों से युक्त, सुकुमाल कोमलतले-सुकुमार सुन्दर तलवे वाले, पडिच्छयसएहिं पणिवइए-और जो सैकड़ों प्रतीच्छकों के द्वारा प्रणाम प्राप्त हैं, ऐसे विशेषणों से युक्त, पाए-चरणों को, पणमामि-प्रणाम करता हूं।
भावार्थ-पूर्वोक्त गुणों से युक्त उन युगप्रधान प्रवचनकारों के प्रशस्त लक्षणोपेत सुकुमार सुन्दर तलवे वाले, सैंकड़ों प्रतीच्छकों-शिष्यों द्वारा प्रणाम किए गए पूज्य चरणों को मैं प्रणाम करता हूं।
टीका-इस गाथा में पुनः दृष्यगणी के विशिष्ट गुणों का तथा पादपद्मों का उल्लेख किया गया है। जिनके चरण-कमल शंख, चक्र, अंकुश आदि शुभलक्षणों से सुशोभित थे। उनके चरणतल कमल की भांति सुकुमार एवं सुन्दर थे। वाणी में माधुर्य, मन में स्वच्छता, बुद्धि में स्फुरण, प्रवचन प्रभावना में अद्वितीय, चारित्र में समुज्ज्वलता, दृष्टि में समता, करकमलों में संविभागता, इत्यादि गुणों से वे सम्पन्न थे। ___ पडिच्छयसएहिं पणिवइए-सैंकड़ों प्रतीच्छिकों द्वारा जिनके चरणकमल सेवित एवं वंदनीय थे। जो मुनिवर विशेष श्रुताभ्यास के लिए अपने-अपने आचार्य की आज्ञा प्राप्त करके अन्य गण से आकर विशिष्ट वाचकों से वाचना लेते हैं या उसी गण के जिज्ञासु वाचना ग्रहण करते हैं, ये प्रातीच्छिक कहलाते हैं, जैसे
पडिच्छयसएहि-वृत्तिकार ने इस पद की व्याख्या निम्न प्रकार की है- "प्रातीच्छिकशतैः प्रणिपतितान् इह ये गच्छान्तरवासिनः स्वाचार्यं पृष्ट्वा गच्छान्तरेऽनुयोगश्रवणाय समागच्छन्ति, अनुयोगाचार्येण च प्रतीच्छ्यन्ते-अनुमन्यन्ते, ते प्रातीच्छिका उच्यन्ते, स्वाचार्यानुज्ञापुरःसरमनुयोगाचार्यप्रतीच्छया चरन्तीति प्रातीच्छिका इति व्युत्पत्तेः, तेषां शतैः प्रणिपतितान्नमस्कृतान् ‘प्रणिपतामि' नमस्करोमि।
भगवद्वाणी के रहस्यों को जो अपने प्रतीच्छकों के लिए वितरण करते हैं, ऐसे अनुयोग आचार्य दूष्यगणी के चरणों में शतशः वन्दन किया जाता है। दूष्यगणीजी आसन्नोपकारी होने से उन्हें देववाचक जी ने पूर्वापेक्षया अधिक भावभीनी वन्दना की है। मूलम्-जे अन्ने भगवंते, कालिय-सुय-आणुओगिए धीरे ।
ते पणमिऊण सिरसा, नाणस्स परूवणं वोच्छं ॥ ५० ॥ छाया- येऽन्ये भगवन्तः, कालिकश्रुतानुयोगिनो धीराः । तान् प्रणम्य शिरसा, ज्ञानस्य प्ररूपणां वक्ष्ये ॥ ५० ॥
- * 166 *