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पदार्थ – अन्ने - अन्य, जो-जो, कालिय- सुय - आणुओगिए-कालिक श्रुत तथा अनुयोग के वेत्ता हैं, धीरे-धीर, भगवंते - विशेष श्रुतधर भगवन्त हैं, ते- उन्हें, सिरसा - मस्तक से, पणमिऊण-प्रणाम करके, नाणस्स - ज्ञान की, परूवणं-प्ररूपणा, , वोच्छं- कहूंगा।
भावार्थ - इन युगप्रधान आचार्यों के अतिरिक्त अन्य जो भी कालिक सूत्रों के ज्ञाता और अनुयोगधर धीर आचार्य भगवन्त हुए हैं, उन्हें प्रणाम करके ( मैं देववाचक) भगवान् ने जो ज्ञान की प्ररूपणा की है, उसे कहूंगा।
टीका-प्रस्तुत गाथा में जिन अनुयोगधर स्थविरों की नामावली, स्तुति और वन्दन के विषय में लिखा जा चुका है, उनके अतिरिक्त अन्य जो आचार्य कालिक - श्रुत एवं अनुयोग के धारण करने वाले हैं, उन सभी को नतमस्तक हो प्रणाम करने के अनन्तर मैं देववाचक ज्ञान की प्ररूपणा करूंगा।
इस गाथा में देववाचकजी ने कालिक श्रुतानयोग के धर्त्ता प्राचीन एवं तद्युगीन अन्य आचार्यों को जिनका कि नामोल्लेख नहीं किया गया, उन्हें भी विनयावनत श्रद्धा से वन्दन करके ज्ञान की प्ररूपणा करने की प्रतिज्ञा की है । इससे यह फलितार्थ निकलता है कि अंगत और कालिक श्रुत धर्त्ता आचार्य उद्भट विद्वान थे । अतः गाथा में धीरे पद दिया है, जैसे कि - विशिष्टधिया राजमानस्तान् - जो विशिष्ट बुद्धि से सुशोभित हैं तथा भगवंत - जो श्रुतरत्न राशि से परिपूर्ण हैं अथवा समग्र ऐश्वर्य आदि से सम्पन्न हैं, इतना ही नहीं, जो-जो .कालिक श्रुतानुयोगी हैं, उन सबको नमस्कार किया गया है।
गाथा में जो परूवणं पद दिया गया है, वह वक्ष्यमाण ज्ञान के भेद-उपभेद के कथन करने वाले सूत्र से अभिप्रेत है। देववाचक जी ने अंगश्रुत, कालिकश्रुत तथा 'ज्ञानप्रवाद' पूर्व रूप महोदधि से संकलन करके ज्ञान के विषय को लेकर इस सूत्र की रचना की है। जिसका विशेष वर्णन यथास्थान प्रदर्शित किया जाएगा।
देववाचक कौन हुए ? इसका उत्तर वृत्तिकार अपनी वृत्ति में लिखते हैं- दूष्यगणिशिष्यो देववाचकः इति अर्थात् देववाचक जी दूष्यगणी के शिष्य हुए हैं।
- इति अर्हदादि स्तुति
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