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________________ सुसमण-वक्खाण-कहण-णिव्वाणिं-इस पद से यह भी सूचित होता है कि सुशिष्यों को शिक्षा-प्रदान करने से गुरु को समाधि प्राप्त हो सकती है, न कि कुशिष्यों को। पयईए महुरवाणिं-इस पद से शिक्षा मिलती है कि प्रत्येक साधक को प्रकृति से ही मधुरभाषी होना चाहिए, न कि कपट से। आचार्य श्री दूष्यगणीजी के गुणोत्कीर्तन करके तथा उनकी विशेषता बताने के अनन्तर चतुर्थ पद में उनको भावभीनी वन्दना की गई है। मूलम्- तव-नियम-सच्च-संजम, विणयज्जव-खंति-मद्दव-रयाणं । सीलगुण-गद्दियाणं, अणुओग-जुगप्पहाणाणं ॥ ४८ ॥ छाया- तपो नियम-सत्य-संयम, विनयार्जव-शान्ति-मार्दव-रतानाम्। शीलगुण-गर्दितानाम्, अनुयोगयुग-प्रधानानाम् ॥ ४८ ॥ पदार्थ-तव-नियम-सच्च-संजम-विणयज्जव-खंति-मद्दव रयाणं-तप, नियम, सत्य, संयम, विनय, आर्जव, क्षान्ति, मार्दव आदि गुणों में रत-तत्पर रहने वाले, सीलगुण-गद्दियाणंशील आदि गुणों में ख्याति प्राप्त, अणुओग-जुगप्पहाणाणं-जो अनुयोग की व्याख्या करने में युगप्रधान थे। , भावार्थ-तपस्या, नियम, सत्य, संयम, विनय, आर्जव-सरलता, क्षमा, मार्दव-नम्रता आदि श्रमणधर्म में संलग्न तथा शीलगुणों से विख्यात और तत्कालीन युग में अनुयोग की शैली से व्याख्यान करने में युगप्रधान इत्यादि विशेषताओं से युक्त (श्री दूष्यगणि जी की प्रशंसा की गयी है।) टीका-इस गाथा में पुन: दूष्यगणी के गुणों का दिग्दर्शन कराया गया है। असाधारण गुणों की स्तुति ही वस्तुतः स्तुति कहलाती है। वे जिन गुणों से अधिक विभूषित थे, यहां उन्हीं गुणों का वर्णन करते हैं। वे द्वादश प्रकार का तप, अभिग्रह आदि नियम, दस प्रकार का श्रमणधर्म, दस प्रकार का सत्य, सतरह प्रकार का संयम, सात प्रकार का विनय, क्षमा, सुकोमलता, सरलता तथा शील आदि गुणों से विख्यात थे। उस युग में यावन्मात्र अनुयोगधर आचार्य थे, उनमें वे प्रधान थे। इस गाथा में मुख्यतया ज्ञान और चारित्र की सिद्धि की गई है। श्रुतज्ञान में अनुयोग पद और चारित्र में उक्त गाथा के तीन पदों में वर्णित किए गए गुणों का अन्तर्भाव हो जाता है। यह गाथा प्रत्येक आचार्य के लिए मननीय एवं अनुकरणीय है। उक्त गाथा में क्रिया न होने से ऐसा लगता है कि-49वीं गाथा से सम्बन्धित है। वृत्ति और चूर्णि में इस गाथा का कोई उल्लेख नहीं है। मूलम्- सुकुमालकोमलतले, तेसिं पणमामि लक्खणपसत्थे । पाए पावयणीणं, पडिच्छय-सएहिं पणिवइए । ४९ ॥ - * 165 *
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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