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________________ छाया - अर्थ - महार्थ - खनिं, सुश्रमण - व्याख्यान - कथन-1 न-निर्वृत्तिम् । प्रकृत्या मधुरवाणिकं, प्रयतः प्रणमामि दूष्यगणिनम् ॥ ४७ ॥ पदार्थ - जो, अत्थ- महत्थ - क्खाणि - शास्त्रों के अर्थ व महार्थ की खान के समान तथा, सुसमण - मूलोत्तर गुणसम्पन्न सुश्रमणों के लिए, वक्खाण-आगमों का व्य करने पर और, कहण - पूछे गए विषयों के कथन पर, निव्वाणिं- शान्ति अनुभव करने वाले, जो, पयईए - प्रकृति से, महुरवाणिं - मधुर वाणी वाले हैं, उन, दूसगणिं-दूष्यगणीजी को, पयओ - प्रयत्नपूर्वक, पणमामि - प्रणाम करता हूं। भावार्थ- जो शास्त्रों के अर्थ और महार्थ की खान के समान अर्थात् भाषा, विभाषा, वार्तिक आदि से अनुयोग की व्याख्या करने में कुशल हैं, जो सुसाधुओं को शास्त्र की वाचना अर्थात् ज्ञानदान देने में और शिष्यों द्वारा पूछे हुए विषयों का उत्तर देने में समाधि का अनुभव करते हैं, जो प्रकृति से मधुरभाषी हैं, ऐसे उन दूष्यगणी आचार्य को सम्मान पूर्वक प्रणाम करता हूं। टीका - उक्त गाथा में आचार्य लोहित्य की विशेषता का दिग्दर्शन कराने के अनन्तर (32) श्री दूष्यगणीजी की स्तुति की गई है। सूत्र की व्याख्या को अर्थ और उसकी विभाषा, वार्तिक, अनुयोग, नय और सप्तभंगी आदि के द्वारा विशिष्ट अर्थ निकालने की शक्ति को महार्थ कहते हैं। अत्थमहत्थक्खाणिं - इस पद से यह भी ध्वनित होता है कि- सूत्र अल्पाक्षरयुक्त होता है और उसके अर्थ महान होते हैं; जैसे- खान- आकर से खनिज पदार्थ निकालते-निकालते वह कभी क्षीण नहीं होती, वैसे ही दूष्यगणीजी भी अर्थ - महार्थ की खान के तुल्य थे। वे विशिष्ट मूलगुण और उत्तरगुणसम्पन्न मुनिवरों के सम्मुख सूत्र की अपूर्व शैली से व्याख्या करते थे, धर्मोपदेश करने में दक्ष थे । श्रुतज्ञान विषयक प्रश्न पूछने पर उनका पूर्णतया समाधान करते थे। स्वभाव से मधुरभाषी होने के कारण जब कोई शिष्य लक्ष्यबिन्दु से प्रमादादि के कारण स्खलित होता, तब उसे मधुर वचनों से ऐसी शिक्षा देते, जिससे वह पुन: वैसी भूल अपने जीवन में नहीं होने देता। उनका शासन और प्रशिक्षण शान्त एवं व्यवस्थित रूप से चल रहा था, क्योंकि हितपूर्वक मधुर वचन कोष को उत्पन्न नहीं करता, कहा भी है “धम्ममइएहिं अइसुन्दरेहिं, कारण- गुणोवणीएहिं । पल्हायंतो यमणं, सीसं चोएइ आयरिओ" ॥ अर्थात्-कषायों को शान्त करने वाले, संयम गुणों की वृद्धि करने वाले, ऐसे धर्ममय अतिसुन्दर वचनों से शिष्य के मन को प्रसन्न करते हुए आचार्य उसे संयम में सावधान करते हैं। जो स्वयं प्रशान्त होता है, वही दूसरों को शान्त कर सन्मार्ग में लगा सकता है। 164
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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