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छाया- सुज्ञात-नित्यानित्यं, सुज्ञात-सूत्रार्थ-धारकं वन्दे ।
सद्भावोद्भावनया, तथ्यं लोहित्यनामानम् ॥ ४६ ॥ पदार्थ-णिच्चाणिच्चं-नित्य-अनित्य रूप से द्रव्यों को, सुमुणिय-अच्छी तरह जानने वाले, सुमुणिय-भली प्रकार समझे हुए, सुत्तत्थं-सूत्रार्थ को, धारयं-धारण करने वाले, सम्भावुब्भावणया तत्थं यथावस्थित भावों को सम्यक् प्रकार से प्ररूपण करने वाले, लोहिच्चणामाणं-लोहित्य नामक आचार्य को, वंदे-वन्दना करता हूं।
भावार्थ-नित्य और अनित्य रूप से वस्तुतत्त्व को सम्यक्तया जानने वाले. अर्थात् न्याय-शास्त्र के गणमान्य पण्डित, सुविज्ञात सूत्रार्थ को धारण करने वाले तथा भगवत् प्ररूपित सद्भावों का यथातथ्य प्रकाश करने वाले, ऐसे श्री लोहित्य नाम वाले आचार्य को प्रणाम करता हूं।
टीका-प्रस्तुत गाथा में आचार्य गोविन्द और भूतदिन्न के पश्चात्
(31) लोहित्य नामक आचार्य का जीवन-परिचय देकर उन्हें वन्दना की गई है। वैसे तो सभी आचार्य महान् तत्त्ववेत्ता और पंडित थे, परन्तु उनमें तीन गुण विशिष्ट थे, जैसे
सुमुणिय-णिच्चाणिच्चं-वे पदार्थों के स्वरूप को भली-भांति जानते थे, सर्व पदार्थ द्रव्यतः नित्य हैं और पर्याय से अनित्य। जैनधर्म न किसी पदार्थ को एकान्त नित्य मानता है और न अनित्य ही, पदार्थों का स्वरूप ही नित्यानित्य है।
सुमुणिय-सुत्तत्थधारयं-वे अपने समय में सूत्र और अर्थ के विशेषज्ञ थे। क्योंकि जीवनोत्थान मन:संयम, वाक्संयम और कायसंयम तथा आगमों का अध्ययन, मनन, चिन्तन, निदिध्यासन करने से ही हो सकता है अन्यथा नहीं। ___सब्भावुब्भावणया-वे पदार्थों के यथावस्थित प्रकाशन में पूर्ण दक्ष थे, अर्थात् पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जान कर उनकी व्याख्या करते थे। वह व्याख्या अविसंवादी, सत्य एवं सम्यक् होने से सर्वमान्य होती थी। इस कथन से यह भली-भांति सिद्ध हो जाता है कि साध क सूत्र और अर्थ को गुरुमुख से श्रवण करे और उसे श्रद्धा के साथ हृदय में धारण करे। तत्पश्चात् स्याद्वाद शैली से पदार्थों के यथार्थ स्वरूप का विवेचन करे, तब ही जनता में धर्मोपदेश का प्रभाव पड़ सकता है।
'मुणिय'-पद 'ज्ञा' धातु को 'मुण' आदेश करने से होता है, जैसे कि-'ज्ञो जाणमुणावति प्राकृतलक्षणज्जानातेर्गुण आदेशः'। मूलम्- अत्थ-महत्य-क्खाणिं, सुसमण-वक्खाण-कहण-निव्वाणिं । . पयईए महुरवाणिं, पयओ पणमामि दूसगणिं ॥ ४७ ॥
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