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पदार्थ-मिउ-मद्दव-सम्पन्ने-मृदु-मार्दव आदि भावों से सम्पन्न, आणुपुट्वि-क्रम से, वायगत्तणं-वाचक पद, पत्ते-प्राप्त, ओह-सुय-समायारे-ओघ-श्रुत को समाचरण करने वाले, नागजुणवायए-नागार्जुन वाचक को, वंदे-वन्दन करता हूं।
भावार्थ-जगत् प्रिय मृदु-कोमल, आर्जव भावों से सम्पन्न तथा भव्यजनों को संतुष्ट करने वाले और जो अवस्था व दीक्षा पर्याय के क्रम से वाचक पद को प्राप्त हुए तथा ओघश्रुत अर्थात् उत्सर्ग विधि का समाचरण करने वाले इत्यादि विशिष्ट गुणसम्पन्न श्री नागार्जुन वाचक जी को नमन करता हूं। ____ टीका-इस गाथा में अध्यापन कला में निपुण, लब्धवर्ण धिषणाशाली, शांतिसरोवर, वाचकपद विभूषित___ (28) श्री नागार्जुन का उल्लेख मिलता है, वे सकल भव्य जीवों के मन को प्रिय लगने वाले थे। मार्दव, आर्जव, संतोष आदि गुणों से सम्पन्न थे। आणुपुट्विं शब्द से नागार्जुन ने वयः पर्याय से तथा श्रुतपर्याय से वाचकत्व प्राप्त किया था। इस कथन से यह भी सिद्ध होता है कि-गुणों के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति अनुक्रम से वृद्धि पाता हुआ सुशोभित होता है। ... ओहसुयसमायारे-वे ओघश्रुत के ज्ञाता थे। ओघश्रुत, उत्सर्गश्रुत को कहते हैं। आचार्य नागार्जुन उत्सर्ग मार्ग के तथा अपवाद मार्ग के पूर्णतया वेत्ता थे। गाथाकार ने इनके गुण दिखलाकर प्रत्येक वाचक को शिक्षित किया है कि वह उक्त गुणों से सम्पन्न बने। मृदु पद से उनका स्वभाव कोमल और लोकप्रिय था। ओहसुयसमायारे इस पद से यह सिद्ध होता है कि वे उत्सर्ग श्रुत के आधार पर ही संयम की आराधना करते थे। गाथा में 'पुव्वी' और 'पुव्वि' दोनों तरह के पाठान्तर देखे जाते हैं। मूलम्- गोविंदाणंपि नमो, अणुओगे विउलधारणिंदाणं ।
णिच्चं खंति-दयाणं, परूवणे दुल्लभिंदाणं ॥ ४१ ॥ तत्तो य भूयदिन्नं, निच्चं तव-संजमे अनिव्विण्णं ।
पंडिय-जण-सम्माणं, वंदामो संजम-विहिण्णुं ॥ ४२ ॥ छाया- गोविन्देभ्योऽपि नमः, अनयोगे विपल-धारणेन्द्रेभ्यः ।
नित्यं क्षांतिदयानां, प्ररूपणे इन्द्र-दुर्लभेभ्यः ॥ ४१ ॥ ततश्च भूतदिन्नं, नित्यं तपः संयमेऽनिर्विण्णम् ।
पण्डितजन-सम्मान्यं वन्दामहे संयम-विधिज्ञम् ॥ ४२ ॥ पदार्थ-अणुओगे विउलधारणिंदाणं-अनुयोग सम्बन्धी विपुल धारणा वालों में इन्द्र के समान, णिच्चं-नित्य, खंतिदयाणं-क्षमा और दया आदि की, परूवणे-प्ररूपणा करने
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