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________________ मूलम्+ वड्ढउ वायगवंसो, जसवंसो अज्ज - नागहत्थीणं । वागरण- करण-भंगिय-कम्म- प्पयडी पहाणाणं ॥ ३४ ॥ छाया - वर्द्धतां वाचकवंशी, यशोवंश आर्यनागहस्तिनाम् । व्याकरण-करण-भागिक- कर्मप्रकृति - प्रधानानाम् ॥ ३४ ॥ पदार्थ - वागरण - व्याकरण अथवा प्रश्नव्याकरण, करण-पिण्डविशुद्धि आदि, भंगिय - भांगों के ज्ञाता, कम्मप्पयडी - कर्मप्रकृति प्ररूपणा करने में, पहाणाणं- प्रधान, ऐसे, अज्जनागहत्थीणं - आर्यनागहस्ती का, वायगवंसो - वाचकवंश, जसवंसो - यशवंश की तरह, वड्ढ - बढ़े। भावार्थ-जो व्याकरण- प्रश्नव्याकरण अथवा संस्कृत एवं प्राकृत शब्दानुशासन में निष्णात, पिण्ड विशुद्धियों और भांगों के विशिष्ट ज्ञाता तथा कर्मप्रकृति - श्रुतरचना से या उनकी विशेष प्रकार से प्ररूपणा करने में प्रधान ऐसे आचार्य नन्दिलक्षपण के पट्टधर शिष्य आचार्य श्री आर्यनागहस्तीजी का वाचकवंश मूर्त्तिमान् यशोवंश की भांति वृद्धि को प्राप्त हो । टीका- - इस गाथा से हमें आर्य नागहस्तीजी का जीवन-परिचय स्पष्टतया मिलता है (22) आर्य नागहंस्तीजी उस युग के अनुयोगधरों में धुरन्धर विद्वान् थे । उनका यशस्वी वाचकवंश वृद्धि को प्राप्त हो, ऐसा कहकर देववाचकजी ने अपनी मंगल कामना व्यक्त की है। हो सकता है, वाचक वंश का उद्भव आर्य नागहस्तीजी से ही हुआ हो। क्योंकि देववाचक ने इनसे पहले अन्य किसी वाचक का नामोल्लेख नहीं किया। जो शिष्यों को शास्त्राध्ययन कराते हैं, उन्हें वाचक कहते हैं। वाचक उपाध्याय पद का प्रतीक है। जसवंसो वड्ढउ - इस पद का आशय है - जो वंश समुज्ज्वल यशप्रधान हो, उस वंश की वृद्धि होती है। गाथा के उत्तरार्द्ध में उनकी विद्वत्ता का परिचय दिया है। वागरण- वे संस्कृतव्याकरण, प्राकृतव्याकरण तथा प्रश्नव्याकरण आदि विषय और भाषा के अनन्यवेत्ता थे। करण' - पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, भिक्षु की प्रतिमाएं, इन्द्रियनिरोध, प्रतिलेखन, गुप्ति और अभिग्रह इन सबके समुदाय को 'करण' कहते हैं। वाचक नागहस्तीजी इन सब के वेत्ता, साधक और आराधक थे। भंगिय - सप्तभंगी, प्रमाणभंगी, नयभंगी, गांगेय अनगार के भंग तथा अन्य प्रकार के जितने भी भंग हैं, उन सब में वाचकजी की गति थी। कम्मप्पयडी - पहाणाणं- कर्म प्रकृति के विशेषज्ञ थे। समुज्ज्वल चारित्र और विद्वत्ता से आर्य नागहस्तीजी वाचक बने। इस गाथा में वंदन नहीं किया गया है, बल्कि यशस्वी वाचकवंश में होने वाली परम्परा वृद्धि को प्राप्त हो, ऐसी मंगल कामना प्रकट की गई है। 1. पिण्डविसोही, समिई, भावण, पडिमा य इंदिय-निरोहो । पडिलेहण गुत्तीओ, अभिग्गहा चेव करणं तु । ❖ 153 ❖
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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