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________________ (पेटी) के समान अनुयोग की रक्षा की। जिसकी जैसी योग्यता, जिज्ञासा और बुद्धिबल हो, उसे पहले उसी अनुयोग का अध्ययन करना चाहिए और अध्यापन तथा उपदेश एवं शिक्षा भी तदनुरूप ही देनी चाहिए। इससे गुरु शिष्य दोनों को सुविधा रहती है। आजकल के विद्वानों का यह भी अभिमत है कि अनुयोगद्वार सूत्र के रचयिता आरक्षितजी हुए हैं। अतः उन्हें श्रद्धावनत होकर वन्दन किया है। मूलम्- णाणम्मि दसणम्मि य, तव-विणए णिच्चकालमुज्जुत्तं । . अजं नंदिल-खवणं, सिरसा वंदे पसन्नमणं ॥ ३३ ॥ छाया- ज्ञाने दर्शने च, तपो-विनये नित्यकालमुक्तम् । __ आर्य नन्दिल-क्षपणं, शिरसा वन्दे प्रसन्न-मनसम् ॥३३॥ पदार्थ-नाणम्मि-ज्ञान में, दंसणम्मि-दर्शन में, य-और, तवविणए-तप और विनय में, णिच्चकालं-नित्यकाल-प्रतिक्षण, उज्जुत्तं-उद्युक्त-तत्पर तथा, पसन्नमणं-राग-द्वेष न होने से प्रसन्नचित्त रहने वाले, अन्जं नंदिल-खवणं-आर्य नंदिल क्षपण को, सिरसा वंदे-मस्तक से वन्दन करता हूं। भावार्थ-जो ज्ञान-दर्शन में और तपश्चरण में तथा विनयादि गुणों में सर्वदा अप्रमादी थे, समाहितचित्त थे, ऐसे गुणों से सम्पन्न आर्य नन्दिल क्षेपण को सिर झुकाकर वन्दन करता हूं। टीका-इस गाथा में आर्य नन्दिल क्षपण के विषय में वर्णन किया है, जैसे कि (21) आर्यनन्दिलक्षपण सदैव ज्ञान, दर्शन, तप, विनय और चारित्र-पालन में उद्यत रहते थे, जिनका मन सदा प्रसन्न रहता था, इसलिए गाथाकार ने पसन्नमणं पद दिया है। जो मुनि निश्चयपूर्वक व्यवहार धर्म में नित्य उद्यमशील रहते हैं, उन्हीं के मन में सदैव प्रसन्नता रहती है। जैसे तीन लोक में सुदुर्लभ चिन्तामणि रत्न मिलने से अर्थार्थी अतीव प्रसन्न होता है, वैसे ही चारित्र भी सर्व प्राणियों के लिए अतीव दुर्लभ है, उसे प्राप्त कर किसको प्रसन्नता नहीं होती ? जो प्राणी उसे प्राप्त करके अरति, रति, भय, शोक, जुगुप्सा, वासना, कषाय इत्यादि विकारों का शिकार बन जाता है, तो समझना चाहिए कि उससे बढ़कर भाग्यहीन संसार में कोई नहीं है। प्रसन्नचित्त का होना भी साधुता का लक्षण है। 'निच्चकालमुज्जुत्तं'-अर्थात् नित्यकालं-सर्वकालमुद्युक्तम्-अप्रमादिकम्-यह शिक्षा हर मुनि को ग्रहण करनी चाहिए कि मन की प्रसन्नता और अप्रमत्त भाव ये दोनों आत्म-विकास के लिए परमावश्यक हैं। - *152* -
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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