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होते हैं। आर्यधर्मजी मूर्तिमान धर्म थे। श्रीभद्रगुप्त ने अपने को बुराइयों से भली-भांति गुप्त रखा हुआ था। आर्यवज्रस्वामीजी का तप-नियम और गुणों से वज्र के समान महत्वपूर्ण जीवन था। आर्यवज्रस्वामीजी वीर निर्वाण सं. छठी शती में देवगति को प्राप्त हुए।
यह गाथा वृत्तिकार ने प्रक्षेपक मानकर ग्रहण नहीं की, किन्तु प्राचीन प्रतियों में यह गाथा उपलब्ध होती है। मूलम्- वंदामि अज्जरक्खिय-खवणे, रक्खिय-चारित्तसव्वस्से ।
. रयण-करंडग-भूओ, अणुओगो रक्खिओ जेहिं ॥ ३२ ॥ छाया- वन्दे आर्यरक्षित-क्षपणान्, रक्षितचारित्रसर्वस्वान्।
रत्न-करण्डकभूतो-ऽनुयोगो रक्षितो यैः ॥ ३२ ॥ पदार्थ-जेहिं-जिन्होंने, चारित्तसव्वस्से-स्व तथा सभी संयमियों के चारित्र-सर्वस्व की, रक्खिय-रक्षा की तथा जिन्होंने, रयण-करंडगभूओ-रत्नों की पेटी के समान, अणुओगो-अनुयोग की, रक्खिय-रक्षा की, उन, खवण-क्षपण-तपस्वीराट्, अज्जरक्खियआर्यरक्षित जी को, वंदामि-वन्दना करता हूं। . - भावार्थ-जिन्होंने तत्कालीन सभी संयमी मुनियों और अपने सर्वस्व चारित्र-संयम की रक्षा की, और जिन्होंने रत्नों की पेटी के सदृश अनुयोग की रक्षा की। उन तपस्वीराज आचार्य श्रीआर्यरक्षितजी को वन्दन करता हूं।
टीका-इस गाथा में आचार्य आर्यरक्षितजी को वन्दन किया गया है
(20) आरक्षित तपस्वीराज होते हुए भी विद्वत्ता में बहुत आगे बढ़े हुए थे। बुद्धि स्वच्छ एवं निर्मल होने से आप ने नव पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया। उनके दीक्षागुरु तोसली आचार्य हुए हैं। आर्यरक्षितजी का जीवन विशुद्ध चारित्र से समुज्ज्वल हो रहा था। जैसे गृहस्थ रत्नों के डिब्बे की रक्षा सतर्कता एवं सावधानी से करते हैं, वैसे ही उन्होंने अनुयोग की रक्षा की। इसके विषय में शीलांकाचार्य अपनी सूत्रकृतांग की वृत्ति में लिखते हैं
"आगमश्च द्वादशांगादिरूपः सोऽप्यार्यरक्षितमित्रैरैदंयुगीनपुरुषानुग्रहबुद्धया चरण-करण-द्रव्यधर्मकथागणितानुयोगभेदाच्चतुर्धा व्यवस्थापितः।" .. अर्थात्-आगम-द्वादश अंगस्वरूप हैं, किन्तु आर्यरक्षितजी ने आजकल के पुरुषों पर, उपकार की बुद्धि से, उसे चरण-करणानुयोग, द्रव्यानुयोग, धर्मकथानुयोग और गणितानुयोग इस प्रकार से आगमों को चार भेदों में विभक्त कर दिया है। अत: यह आचार्य श्रुतज्ञान के वेत्ता होने से आगमों की रक्षा करने में दत्तचित्त थे। इसीलिए गाथाकार ने गाथा के उत्तरार्ध में ये पद दिए हैं, जैसे कि-रयण-करण्डगभूओ, अणुओगो रक्खिओ जेहिं-जिन्होंने रत्नकरण्ड
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