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________________ मूलम - जच्चंजण - धाउ समप्पहाणं, मुद्दिय - कुवलय-निहाणं । वड्ढउ वायगवंसो, रेवइनक्खत्त - नामाणं ॥ ३५ ॥ छाया - जात्यांजन- धातुसमप्रभाणां, मृद्विका - कुवलयनिभानाम् । वर्द्धतां वाचकवंशी, रेवतिनक्षत्रनाम्नाम् ॥ ३५ ॥ पदार्थ - जच्चंजण-धाउ - समप्पहाणं - जाति अंजन धातु के समान प्रभा वाले तथा, मुद्दिय- कुवलय-निहाणं- द्राक्षा व कुवलय कमल के समान नील कांति वाले, रेवड़ - नक्खत्त नामाणं- रेवति नक्षत्र नामक मुनिप्रवर का, वायगवंसो-वाचक वंश, वड्ढउ - वृद्धि प्राप्तं करे। भावार्थ- - उत्तम जाति के अंजन धातु के तुल्य कांति वाले तथा पकी हुई द्राक्षा और नीलकमल अथवा नीलमणि के समान कांति वाले, आर्य रेवतिनक्षत्र का वाचकवंश वृद्धि प्राप्त करे । टीका - इस गाथा में आचार्य नागहस्ति के शिष्य आचार्य रेवतिनक्षत्र का उल्लेख किया गया है (23) आचार्य रेवतिनक्षत्र जाति सम्पन्न होने पर भी इनके शरीर की दीप्ति अंजन धातु के सदृश थी। अंजन आंखों में ठंडक पैदा करता है और चक्षुरोग को दूर करता है, इसी प्रकार इनके दर्शनों से भी भव्य - प्राणियों के नेत्रों में शीतलता प्राप्त होती थी । अतः स्तुतिकार ने शरीर-कान्ति के विषय में लिखा है - मुद्दियकुवलयनिहाणं' - इसका आशय है, जैसे परिपक्व द्राक्षाफल तथा नीलोत्पल कमल का वर्ण कमनीय होता है, उसके समान उनके देह की कान्ति थी । वृत्तिकार ने यह भी लिखा है - किसी आचार्य का अभिमत है कुवलय शब्द से मणि विशेष जानना चाहिए। जैसे कि मृद्विकाकुवलयनिभानां परिपाकगतरसद्राक्षया नीलोत्पलं च समं प्रभाणाम्, अपरे पुनराह कुवलयमिति मणिविशेष - स्तत्राप्यविरोधः । स्तुतिकार ने इनको भी वाचक वंश में मानकर वाचक वंश की वृद्धि का आशीर्वाद दिया है। जैसे कि - वड्ढउ वायगवंसो - वाचकानां वंशो वर्द्धताम् - संभव है, उनके जन्म समय या दीक्षा के समय रेवती नक्षत्र का योग लगा हुआ हो, इसी कारण उनका नाम रेवतिनक्षत्र रखा गया हो । मूलम् - अयलपुराणिक्खंते, कालिय- सुय- आणुओगिए धीरे । बंभद्दीवग-सीहे, वायग-पय-मुत्तमं पत्ते ॥ ३६ ॥ अचलपुरान्निष्क्रान्तान्, कालिकश्रुताऽनुयोगिकान् धीरान् । ब्रह्मद्वीपिकसिंहान्, वाचक-पद-मुत्तमं प्राप्तान् ॥ ३६ ॥ पदार्थ-अयलपुरा-अचलपुर से जो, णिक्खते - दीक्षित हुए, कालिय- सुयआणुओगिए 154 छाया v
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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